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________________ २०२ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग -पेट भरने के लिये ही बावले के समान फिरने वाले प्राणी के लिए संत कहते हैं- "अरे मानव ! तू अपनी ही चिन्ता दिन-रात क्या करता है ? तेरी चिंता तुझे बनाने वाले को भी तो होगी। - जिस विधाता ने मनुष्य को मुह दिया है तो क्या उस मुह में डालने के लिए वह अन्न के कण नहीं देगा ? वह तो एक तेरा ही क्या, सभी जीवों का पेट भरेगा। कुत्ता बुद्धिहीनता और विवेकहीनता के कारण एक-एक टुकड़े के लिए घरघर घूमता है किन्तु तुझे तो ईश्वर ने विशिष्ट शक्ति, ज्ञान, विवेक और मस्तिष्क दिया है फिर तू केवल पेट भरने की समस्या को लिए ही क्यों यत्र-तत्र फिरता रहकर अपने अन्य समस्त गुणों को व्यर्थ कर रहा है ? क्या इस जन्म में केवल उदर-पूर्ति करते रहने से ही तेरा मनुष्य-जीवन प्राप्त करने का उद्देश्य पूरा हो जाएगा ? नहीं, मानव-जन्म केवल पेट भरने के लिए नहीं, वरन सदा के लिए पेट और उसकी भूख मिटाने के लिए मिला है और यह तभी संभव होगा, जबकि तू हरि का स्मरण करेगा । इस प्रकार चाहे तू लाख सिर और बातों के लिए पटक, किन्तु भगवान के बिना तेरा कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होगा। उसके स्मरण करने से ही काम सरेगा यानी सदा के लिए भूख मिटाकर मुक्तावस्था को प्राप्त कर सकेगा। सीधी-साधी भाषा में संत ने कितना सुन्दर उपदेश दिया है। अगर व्यक्ति इसे समझ ले और अपने परलोक को सुधारने का निश्चय कर ले तो उसका यह शरीर प्राप्त करना सार्थक हो जाएगा। यहां यह बात ध्यान में रखने की है कि यद्यपि अधिकतर संसारी जीव मिथ्यात्व के उदय और ज्ञान-हीनता के कारण संतों के उपदेशों को भी इस कान से निकाल देते हैं। किन्तु सभी ऐसे जीव नहीं होते। अनेक भव्य प्राणी ऐसे भी होते हैं जो मानव भव की दुर्लभता को समझते हैं, उसके उद्देश्य को जानते है और इसलिए इस संसार में रहते हुए भी संसार से उदासीन रहकर शुभ-भावनाएं भाते हैं । वे ही उत्तम भावनाएं' मैं आपके सामने रखने जा रहा हूं और वे इस प्रकार हैं व्यावहारिक द्रव्य कमाने को, दूकान खोल मैं देता हूँ। त्यों धर्म दुकान को खोल गा मैं वही धन्य दिन मानूंगा ।। मुमुक्ष प्राणी की पहली भावना हैं—सुकृत करनी करना। इस विषय में एक लाइन में पहले कह चुका हूँ जिसमें कवि कहता है-जब मैं सुकृत द्रव्य कमाऊँगा तभी अपने आपको और उस दिन को धन्य समझूगा । भौतिक द्रव्य कमाने में तो आज सारी दुनिया लगी हुई है। पर उससे क्या लाभ होना है ? यह शरीर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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