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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
जाएगा तो धीरे-धीरे उसके निमित्त से ही अग्नि का प्रज्वलन होना प्रारम्भ हो जाएगा। इसके अलावा जब परिषह सहन करने की शक्ति साधु में न रहेगी तो उसकी आत्म-शक्ति साधना के लिये भी किस प्रकार उत्कृष्ट बन सकेगी। शरीर को सुख पहुँचाना और मुक्ति के लिये संयम की दृढ़ साधना करना यह दोनों कार्य एक साथ नहीं हो सकते । जो व्यक्ति शरीर को सुख पहुंचाने का प्रयत्न में रहता है, वह आत्मा को सुखी करने का प्रयास नहीं कर सकता।
. क्योंकि दोनों परस्पर विरोधी मार्ग हैं शरीर के सुख की कामना करने वाला मार्ग प्रवृत्ति मार्ग है और आत्मा को सुख पहुंचाने का प्रयास करने वाला निर्वृत्ति मार्ग होता है। इन दोनों पर एक साथ कभी नहीं चला जा सकता। जिसकी प्रवृत्ति भोगों की ओर होगी वह निवृत्ति मार्ग या त्याग-मार्ग को कैसे अपनाएगा ?
योगशास्त्र में कहा भी है.... "स्वयं त्यक्ता ह्यते शममुखमनन्तं विदधति ।"
__ यानी-सांसारिक भोगों को अपनी इच्छापूर्वक परित्याग कर देने से अनन्त सुख रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
इस प्रकार शरीर को सुख पहुँचाना भी भोगेच्छा ही कहलाती है और अगर साधु इनकी इच्छा रखता है तो वह त्याग को दृढ़ता से नहीं अपना सकता और उसकी संयम-साधना बाधित होती है । और इसीलिये अगर वह शीत-परिषह को सहन न करके अग्नि तापना प्रारम्भ करेगा तो उसे गरम वस्त्र रखने की भी चाह पैदा हो जाएगी और उसके साथ ही शीत-निवारण के उपयुक्त स्थान की अपेक्षा भी करेगा। परिणाम यह होगा कि उसका मन इन्हीं बातों में उलझा रहेगा और समय पर स्वाध्याय, चिंतन-मनन आदि में वह लीन नहीं हो सकेगा । फिर भव-सागर पार करने की इच्छा तो उसके लिये आकाश-कुसुम ही बनकर रह जाएगी। गुजराती भाषा के एक कवि का कथन है
आ भव-सागर तेह तरे छे, करवान जे काम करे छ । .. मंगलकारक जेना मन छ, दोष करवाथी जेह डरे छे ।। .
यह संसार-रूपी समुद्र वही पार कर सकता है जो करने योग्य कार्य ही करता है। और करणीय वही है जो भगवान ने बताया है। ऐसा साधक जिसका अन्तःकरण मंगलकारी है, और जो संसार के किसी भी जीव का अमंगल नहीं सोचता वह पापों से सदा भयभीत रहता है, अतः किसी काम में जीव की हिंसा नहीं करता । ऐसा
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