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वही दिन धन्य होगा...!
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
कल मैंने बाईस परिषहों में से तीसरे शीत परिषह के बारे में बताया था । आज भी इसी विषय पर कुछ और वर्णन चलेगा ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्र के दूसरे अध्ययन की सातवीं गाथा में कहा गया हैन मे निवारण अस्थि छवित्ताणं न विज्जई । अहं तु अग्गिं सेवामि इइ भिक्खु न चिन्तए ॥
अर्थात् - मेरे पास शीत से निवारण करने वाला स्थान नहीं है और शरीर को उससे बचाने लायक वस्त्रादि भी नहीं है, अतः मैं अग्नि का सेवन करू; इस प्रकार का चिन्तन मुनि कदापि न करे ।
इस गाथा के द्वारा साधु को अग्नि तापने का निषेध किया गया है । भले ही उसके पास सर्दी से बचाव के लिये काफी और उचित वस्त्र न हों, ठीक स्थान भी उसे न मिला हो, फिर भी वह अग्नि के समीप बैठे नहीं और अग्नि तापने की इच्छा न करे । क्योंकि संयम ग्रहण करने पर मुनि संसार के समस्त जीवों की रक्षा करने का व्रत लेता है । किन्तु अग्नि सचित्त यानी सजीव होती है । सजीव ही क्या वह तो अग्निकाय के जीवों का समूह मात्र ही होती है । अत: अगर साधु अग्नि के ताप से शीत निवारण करता है तो अग्निकाय के असंख्य जीवों की हिंसा का भागी बनता है ।
आप जानते ही हैं कि जब एक बाड़ टूट जाती है तो फिर एक के बाद एक सभी धीरे-धीरे समाप्त होकर ही रहती हैं । अत: अगर साधु अग्नि के समीप बैठ
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