SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २० | वही दिन धन्य होगा...! धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! कल मैंने बाईस परिषहों में से तीसरे शीत परिषह के बारे में बताया था । आज भी इसी विषय पर कुछ और वर्णन चलेगा । श्री उत्तराध्ययन सूत्र के दूसरे अध्ययन की सातवीं गाथा में कहा गया हैन मे निवारण अस्थि छवित्ताणं न विज्जई । अहं तु अग्गिं सेवामि इइ भिक्खु न चिन्तए ॥ अर्थात् - मेरे पास शीत से निवारण करने वाला स्थान नहीं है और शरीर को उससे बचाने लायक वस्त्रादि भी नहीं है, अतः मैं अग्नि का सेवन करू; इस प्रकार का चिन्तन मुनि कदापि न करे । इस गाथा के द्वारा साधु को अग्नि तापने का निषेध किया गया है । भले ही उसके पास सर्दी से बचाव के लिये काफी और उचित वस्त्र न हों, ठीक स्थान भी उसे न मिला हो, फिर भी वह अग्नि के समीप बैठे नहीं और अग्नि तापने की इच्छा न करे । क्योंकि संयम ग्रहण करने पर मुनि संसार के समस्त जीवों की रक्षा करने का व्रत लेता है । किन्तु अग्नि सचित्त यानी सजीव होती है । सजीव ही क्या वह तो अग्निकाय के जीवों का समूह मात्र ही होती है । अत: अगर साधु अग्नि के ताप से शीत निवारण करता है तो अग्निकाय के असंख्य जीवों की हिंसा का भागी बनता है । आप जानते ही हैं कि जब एक बाड़ टूट जाती है तो फिर एक के बाद एक सभी धीरे-धीरे समाप्त होकर ही रहती हैं । अत: अगर साधु अग्नि के समीप बैठ १९६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy