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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग न सहन करने पड़े और कैसे भी. उपसर्ग तथा परिषहों का सामना क्यों न हो, तुम मेरु पर्वत की तरह अविचलित बने रहो तथा देश व धर्म लिये कभी कुरबानी देनी पड़े तब भी हँसते-हँसते बलिदान हो ही जाओ।
जैनाचार्य 'मानतुग' ने भगवान ऋषभदेव की स्तुति करते हुए कहा है-- हे प्रभो ! आपके समक्ष संसार के सम्पूर्ण ऐशोआराम आए किन्तु
चित्र किमत्रयदिते त्रिदशांगनाभि
र्नीतम् मनागपि मनो न विकारमार्गम् । कल्पान्तकालमरुता चलिता चलेन,
कि मन्दराद्रि शिखरं चलितं कदाचित् ।। अर्थात्-भगवन् ! आपका मन इस जगत के भोग-विलासों से विरक्त होने के कारण अप्सराओं और देवांगनाओं को अपने समक्ष पाकर भी विचलित नहीं हुआ । पर इसमें भी आश्चर्य की क्या बात है, क्योंकि प्रलयकाल की भयंकर वेगगान हवाएं चलने पर भी मेरु-पर्वत कभी नहीं डोलता तो फिर आप तो चैतन्य स्थिति को प्राप्त एवं आत्मा की अनन्त शक्ति से परिपूर्ण हैं। इसलिये आपका मन विकारमार्ग की ओर कैसे बढ़ सकता है ?
भगवान की इस शक्ति के प्रति नतमस्तक होता हुआ कवि भी नौजवानों को यही प्रेरणा दे रहा है कि जीवन में चाहे जैसी विकट स्थितियां क्यों न आएं, मेरु-पर्वत की तरह अकंप रहो, डगमगाओ मत । ___ आगे कहा है
कुसियों पर क्यों पड़े रहते हो मित्रो हर घड़ी,
लूले लंगड़े की तरह आराम पाना छोड़ दो। कितनी सुन्दर बात कही गई है कि तुम्हारे माता-पिता और शिक्षकों ने तुम्हें कुछ करने योग्य, बना दिया है और उच्च-पद भी तुम्हें मिल गए है। किन्तु उन पदवियों को पाकर तुम्हें उनका इतना नशा या अहंकार हो गया है कि अब आराम से तुम उन पर बैठे रहते हो, जैसे कि अब कुछ करने को शेष ही नहीं रह गया है । पर यह तुम्हारे मन का लंगड़ापन है । सही रूप से सोचा जाय तो नौजवानों के कार्य करने का समय तो अब सामने आया है जबकि वे स्वयं अपनी बुद्धि और बल के द्वारा देश, धर्म तथा समाज के लिये कुछ कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में अभी तक तो औरों के सहारे से ऊँची कुर्सियों पर बैठ सके हैं पर उनका कार्य-क्षेत्र अब उन्हें पुकार रहा है। और इस समय वे पंगु के समान अपनी पदवियाँ से चिपके ही बैठे
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