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के बलवन्तम् न बाधते शीतम्
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फिर शीत और ग्रीष्म का अनुभव करता है ? नहीं, ये सब परिषह तो उसे गौण लगते हैं उसके सामने महत्त्व केवल उसकी साधना का ही रहता है।
__ सच्चे मुनि के भी यही लक्षण हैं । वे अपनी साधना में इतने रत रहते हैं कि भूख-प्यास एवं शीतादि परिषह उन्हें महसूस ही नहीं होते। उन्हें ध्यान रहता है केवल अपनी संयम-साधना का वे अपने व्रतादि का पालन करने में इतने दृढ़ होते हैं कि शरीर की सुख-सुविधा के विचार उनके अन्तःकरण से निकल जाते हैं।
आपको क्या करना है बंधुओ ! यह तो हुई हमारी मुनिचर्या की बात । आपमें इतना साहस, त्याग और दृढ़ता नही है । साधारण से साधारण कष्टों से भी आप घबरा जाते हैं तथा धर्म-क्रियाओं को और ईश-चिन्तन को एक ओर रख देते हैं । और तो और जिस समाज, देश और धर्म में आपने जन्म लेकर अपने आपको बड़ा किया है, उसके लिये किये जाने वाले साधारण कर्तव्यों का भी आप पालन नहीं कर पाते हैं। कम से कम इनका ध्यान तो आपको रहना ही चाहिये ।
किसी कवि ने यही बात ध्यान में रखते हुए देश के नौजवानों को प्रेरणा देते हुए उनका साहस बढ़ाने का प्रयत्न किया है तथा कहा है
नौजवानो, तुम कदम उलटे हटाना छोड़ दो,
काम के मैदान में पीछा दिखाना छोड़ दो। कवि का कहना है- ऐ नौजवानो ! जिस देश, धर्म और जाति में तुमने जन्म लिया है, और जहाँ की मिट्टी से तुम्हारा पोषण हुआ है, कम से कम उसका खयाल तो करो। तुम्हारा कर्तव्य समाज और धर्म की सेवा करना है अतः उससे विमुख मत होओ । अभी तुम्हारे समक्ष बड़ा भारी कर्तव्य है, और वह है अपने धर्म और समाज को ऊंचा उठाना । इसलिये काम करो और कार्य-क्षेत्र में बढ़ते चलो। काम से मुंह मोड़कर पीठ मत दिखाओ । आगे कहा है
ऐ उस्तादो! तुम रहो हर वक्त पवन की तरह।
कंप कंपाना छोड़ दो और डगमगाना छोड़ दो ! नौजवानों को अत्यधिक प्रेरणात्मक 'उस्ताद' शब्द से सम्बोधित करते हुए कवि ने अपनी मनोरंजन वृत्ति का भी परिचय दिया है । उस्ताद वही होता है जो स्वयं भी समर्थ हो और दूसरों को भी समर्थ बना सके । अतः उसका कहना है कि देश के नवयुवको, तुम ऐसे ही शक्तिशाली, मार्गदर्शक बनो तथा अपने हृदय में तनिक भी भय मत रहने दो । कसी भी विकट परिस्थिति क्यों न आए, कैसे भी कष्ट क्यों
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