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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग संस्कृत में एक श्लोक है, जिसमें प्रश्न है और उत्तर भी। श्लोक इस प्रकार है
कं बलवन्तम् न बाधते शीतम् ?
कंबलवन्तम् न बाधते शीतम् । पद्य की प्रथम पंक्ति में कहा गया है-ऐसा कौन बलवान है, जिसको ठंड नहीं लगती ? और दूसरी पंक्ति, जिसमें शब्द वही हैं, बताया गया है-कम्बल वाले को ठंड नहीं लगतीं । यानी जिसके पास कंबल है उसे सर्दी नहीं लगतीं ।
अभिप्राय यही है कि शीत निवारण के लिये कंवल होना आवश्यक है किन्तु संत कहाँ ये सब रखते हैं ? वे तो अपने साधारण वस्त्रों से ही काम चलाते है । चाहे कितना भी शीत का प्रकोप क्यों न हो, अपने सीमित वस्त्रों का ही उपयोग वे करते हैं । इसके साथ ही भगवान के आदेशानुसार अपनी दिनचर्या अथवा रात्रि-चर्या में भी बाधा नहीं आने देते । कड़ाके की सर्दी क्यों न हो, ठीक समय पर स्वाध्याय, ध्यान, चिंतन और मनन में जुट जाते हैं । इस प्रकार तनिक भी कष्ट का अनुभव न करते हुए वे परम-शांति और प्रसन्नता पूर्वक शीत-परिषह सहन करते हैं।
भर्तृहरि ने अपने एक श्लोक में बताया है कि जिन व्यक्तियों को सांसारिक सुखों से विरक्ति हो जाती है वे यह सोचते हैं
गङ्गातीरे हिमगिरिशिलाबद्धपदमासनस्य, ब्रह्मध्यानाभ्यसनविधिना योगनिद्रां गतस्य । कि तैर्भाव्यं मम सुदिवसर्यत्र ते निविशंकाः,
संप्राप्स्यन्ते जरठहरिणा शृङ्गकंडूविनोदम् ।। संसार से उदासीन व्यक्ति यह भावना रखते हैं कि - अहा ! वे सुख के दिन कब आएंगे जबकि हम गंगा नदी के किनारे पर हिमालय की शिलाओं पर पद्मासन लगाकर विधिपूर्वक नेत्र बंद करके ब्रह्म का ध्यान करते हुए योगनिद्रा में मग्न होंगे तथा वृद्ध हरिण निर्भयता पूर्वक हमारे शरीर की रगड़ से अपने शरीर की खुजली मिटाएँगे।
संसार-विरक्त प्राणी की कैसी सुन्दर भावनाएं हैं। वह इस प्रपंचमय जगत से दूर जाकर एकान्त में ब्रह्म के ध्यान में निमग्न हो जाना चाहता है। वह चाहता है कि मैं योग-निद्रा में ऐसा लीन हो जाऊँ कि अपने शरीर की सुध-बुध खो बैलूं।
आप विचार कर सकते हैं कि शरीर की सुधि भूल जाने वाला साधक क्या
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