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- कं बलवन्तम् न बाधते शीतम्
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो !
पिछले प्रवचनों में हम संवर के विषय में विचार-विमर्श करते आ रहे हैं। संवर के सत्तावन भेद हैं, जिनमें पहले पांच समितियां और तत्पश्चात् तीन गुप्तियाँ हैं । इन आठों के बाद बाईस परिषह आते हैं । बाईस परिषहों में से प्रथम क्ष धारपरिषह और दूसरे पिपासा-परिषह को भी हम ले चुके हैं।
आज तीसरे परिषह का नम्बर है । तीसरा परिषह है-'शीत परिषह ।' इस विषय में भगवान महावीर का आदेश है
चरंतं विरयं लहं, सीयं फुसइ एगया। नाइवेलं मुणी गच्छे, सोच्चाणं जिणसासण ।।
-उत्तराध्ययन सूत्र, अ० २।६ अर्थात्-ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए सावद्य प्रवृत्ति के त्यागी और रूक्ष वृत्ति वाले साधु को अगर कहीं पर शीत का अनुभव हो तो वह उसे कष्ट समझकर स्वाध्याय के समय का उल्लंघन करके किसी अन्य स्थान पर न जाए तथा जिन शासन को समझकर शीत के परिषह को सहन करे ।
आप सब भली-भांति जानते हैं कि साधु सदा भ्रमण करते रहते हैं । वे स्थिर रहते हैं चातुर्मास में तथा अन्य किसी विशेष कारण से । यथा-शिक्षा के प्रसंगवश दीक्षा के प्रसंग पर, अस्वस्थता के कारण या फिर संथारे के कारण । ऐसे विशेष कारणों से वे एक स्थान पर उद्देश्य की पूर्ति तक ठहरते हैं, अन्यथा यत्र-तत्र विचरते हैं। संतों के लिये तो कहा भी जाता है
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