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________________ कर्तव्यमेव कर्तव्यं ! १८५ में उत्पन्न हुए थे, शारीरिक सौन्दर्य भी नहीं था और धन का तो सवाल ही कहाँ था । तात्पर्य यह है कि उनका जीव पूर्व के पुण्यों से सर्वथा रहित आया था । किन्तु अपने उस मानव जन्म में उन्होंने घोर संयम साधना करके इतने शुभ कर्मों का उपार्जन कर लिया कि संसार - मुक्त ही हो गये । ऐसे उदाहरणों से साबित होता है कि खाली गाड़ी लाने वाला व्यापारी जीव यहाँ गाड़ी भर करके ले जाता है । 1 (३) अब आते हैं तीसरे प्रकार के व्यापारी जीव । ये जीव वे कहलाते हैं जो कि पिछली शुभ करणी के द्वारा अपनी गाड़ी तो पुण्य रूपी शक्कर से भरकर लाते हैं, किन्तु यहाँ उसे खाली कर देते हैं और फिर भर नहीं पाते। उसे खाली ही ले जाते हैं । ऐसे जीवों के लिये हम रावण, कंस, एवं ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदि के उदाहरण ले सकते हैं । इन लोगो ने पिछले जन्म से जप, तप, धर्म-ध्यान आदि के कारण अपने वर्तमान भव में असीम ऋद्धि एवं विपुल सुख के साधन प्राप्त किये । किन्तु फिर अनीति, अहंकार एवं अन्याय पूर्ण आचरण के कारण आगे के लिये कुछ भी उत्तम फल प्राप्त नहीं किया । उलटे, अपनी पुण्य से खाली की हुई गाड़ी में असंख्य पापकर्मों की मिट्टी भरकर ले गये, ऐसे जीव भाग्यहीन कहलाते हैं । (४) अब चौथे प्रकार के व्यापारी जीवों का दृश्य सामने आता है । ये जीव भी पूर्णतया हतभागी होते हैं जो कि न तो कुछ पुण्य लेकर आते हैं, और न ही यहाँ से कुछ लेकर जाते हैं । इनकी गाड़ी रीती आती है और रीती ही जाती है । यह भी कहा जा सकता है कि वे मिट्टी ढोकर लाते हैं और यहाँ से भी मिट्टी ही ले जाते हैं । वे जन्म लेते हैं पर कभी पेट भर रोटी और लज्जा ढकने के लिये वस्त्र भी प्राप्त नहीं कर पाते। कितने ही भिखारियों को हम देखते हैं जो जन्म के पश्चात् से ही घृणित जीवन बिताते रहते हैं । लोगों की जूठन खाकर पेट को कुछ खुराक देते हैं. तथा माँग- माँगकर किसी प्रकार जीते रहते हैं । परिणाम यही होता है कि पुण्यहीन होकर ही वे आते हैं और धर्म के नाम को भी न जानने वाले वे पुण्य रहित ही जाते हैं । अनेक व्यक्ति चोरी डाके डालकर यहाँ भी सजा भोगते हैं और आगे जाकर भी दुखपाते हैं। तो बंधुओ, स्थानांगसूत्र के इन चार उदाहरणों से आप भली-भाँति समझ गए होंगे कि मनुष्य का इस जन्म में क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य | क्या करने से उसका परलोक बनता है और क्या करने से बिगड़ जाता है आपके सामने अभी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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