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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
-... तब उनमें से एक पहले बोली-"ऋषि जी! मेरा नाम लक्ष्मी है और मैं लोगों को धन-माल से भरपूर करके संसार के अनेक सुख प्रदान करती हूँ। अब कहिये आपका नमस्कार मेरे लिये ही था न ?"
नारद जी बोले-"नहीं ! तुम कुछ लोगों को ही निहाल करती हो । संसार के बड़े-बड़े विद्वान और ज्ञानियों के निकट तुम नहीं फटकतीं अतः मैंने तुम्हें नमस्कार नहीं किया।"
लक्ष्मी नारद की बात सुनकर चुप हो गई। कुछ भी नहीं बोल सकी । अब दूसरी स्त्री प्रसन्न होकर कह उठी -- "मेरा नाम सरस्वती है ऋषिराज ! तुम्हारे बताए हुए विद्वान और ज्ञानी पुरुष मुझे ही चाहते हैं और मैं उन पर अपनी कृपा उड़ेल देती हूँ। निश्चय ही आपने मुझे प्रणाम किया था। ठीक है न ?"
सरस्वती की बात सुनकर नारद जी अपनी चोटी ठीक करते हुए धीरे-धीरे बोले- "मैंने तुम्हें भी नमस्कार नहीं किया । क्योंकि तुम भी अपनी कृपा इने-गिने लोगों पर ही करती हो । बड़े-बड़े धनी और कुबेरपति तो तुम्हारी दया न होने से गोबर गणेश ही रह जाते हैं ।" नारद जी की बात सुनकर सरस्वती भी अपना सा मुह लेकर रह गई।
- अब तीसरी स्त्री की बारी आई । दो स्त्रियों के प्रति नारद जी का मन्तव्य सुनकर वह भी कुछ-कुछ निराश होते हुए हिचकिचाहट पूर्वक बोली
___ "नारद जी ! मेरा नाम तो होनहार है ।" स्त्री के मुंह से यह शब्द सुनते ही नारद जी उछल पड़े और उसे आगे कुछ भी बोलने का मौका न देते हुए उसे पुनः हाथ जोड़ते हुए बोले- "देवी ! तुम्हें ही मैंने नमस्कार किया था। तीनों में से तुम ही बस ऐसी हो जो लाख प्रयत्न करने पर भी अपना करिश्मा लोगों को दिखाए बिना नहीं रहतीं और तुम्हारी कृपा से ससार का कोई भी व्यक्ति चाहे वह चक्रवर्ती हो और चाहे भिखारी, कोई वंचित नहीं रहता। तुम ही वह देवी हो जिसे मैं तो क्या संसार का हर व्यक्ति नमस्कार करता है।"
तो बंधुओ, मैं आपको यह बता रहा था को होनहार को कोई नहीं टाल सकता। साथ ही ध्यान में रखने की बात यह है कि होनहार या होनी का निर्माण कर्मबन्धनों के द्वारा होता है अतः जबकि कर्मों के फल को भोगे बिना नहीं बचा जा सकता तो फिर होनी को कैसे टाला जा सकता है ? मन को ढील मत दो ?
इसलिये मेरा यहो कहना है कि जब हमें उत्तम कुल, उत्तम जाति, उत्तम
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