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कर्तव्यमेव कर्तव्यं....!
इस पर पहले बोलने वाली दोनों कैसे चुप रहती ? प्रत्येक अड़ गई कि नारदजी ने मुझे ही नमस्कार किया। बस फिर क्या था, कुए पर तीनों ने झगड़ना शुरू कर दिया और पानी भरना भूल गईं।
ठीक उसी समय एक वृद्ध महात्माजी उस रास्ते से आए जो कुए के बगल से ही जाता था। वे कुए पर तीन स्त्रियों को इस बुरी तरह झगड़ते देखकर बड़े चकित हुए और उनके पास आकर झगड़ने का कारण पूछने लगे
वृद्ध पुरुष को समीप आया देखकर वे कुछ शांत हुई और उन्हें अपने लड़ने का कारण बताया। स्त्रियों की बात सुनकर महात्माजी समझ गए कि यहाँ भी नारदमुनि कुछ गोल-माल कर गए हैं। पर प्रत्यक्ष में वे बोले-"तुम लोग कहो तो मैं उन ऋषिजी को वापिस ढूढ़ लाऊँ और उन्ही से यह पूछ लिया जाय कि उन्होंने किसे नमस्कार किया है ?"
महात्माजी की बात से तीनों स्त्रियां सहमत हो गई और बोलीं- "भगवन, यही ठीक है। आप शीघ्र जाकर उन्हें लौटा लाइये ताकि हमें मालूम तो हो जाय कि नारदजी ने हममें से किसे नमस्कार किया है।"
यह सुनकर महात्माजी जिस दिशा में नारदजी गये थे, उस ओर चल पड़े। किन्तु नारदजी को जाना कहाँ था ? जैसी उनकी आदत थी, वे कुछ ही दूरी पर झाड़ियों की आड़ में बैठे तमाशा देख रहे थे। महात्माजी ने उन्हें देख लिया और जा पकड़ा। तत्पश्चात् बोले-"आपका यह कैसा काम है ? आग लगाकर तमाशा देखने बैठ जाते हैं । चलिये अब निपटाइये उनके झगड़े को !"
बेचारे नारदमुनि अचानक ही पकड़े गये समझकर घबरा उठे पर करते क्या? मन मारकर महात्मा जी के साथ चले । उन्हें खुद ही समझ में नहीं आ रहा था कि अब मैं झगड़ा निपटाऊँगा कैसे ?
पर आखिर दोनों कुए के पास पहुंच गए। अधिक दूर तो वह था ही नहीं । महात्मा जी बोले- अब सच-सच बतलाओ कि आपने इनमें से किसे नमस्कार किया था ?
नारद जी अपनी सफाचट खोपड़ी खुजाते हुए कुछ पल सोचते रहे और अचानक उनके दिमाग में कुछ सूझ आई । अतः वे स्त्रियों से बोले
____ देवियो ! मैं तो आपको जानता नहीं हूँ अत: पहले मुझे क्रम से अपना परिचय दो और अपने नाम बताओ।"
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