SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८० आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग बात कितनी सुन्दर और यथार्थ है। कि अगर हम शांति पूर्वक परिषहों को सहन कर लेते हैं तो पूर्वकृत कर्मों पर अगर आर्त ध्यान पैदा हो गया और उपसर्गप्रदान करने वाले के प्रति बदला लेने की भावना मन में आ गई तो पुनः कर्मों का बन्धन हो जाएगा। दूसरे शब्दों में फिर जीव कर्मों का कर्जदार हो जाएगा और अगली बार उन्हें फिर भुगत कर चुकाना पड़ेगा। इसलिए, मान और अपमान, दुःख और सुख सभी को समान समझकर मुमुक्ष को अपने कर्मों की निर्जरा करनी चाहिये । वही व्यक्ति मुक्ति का अधिकारी बनता है जो प्रत्येक स्थिति में समभाव रखता है तथा परिषहों को पिछला कर्ज समझकर उसे शांति से चुकाता है। वह भव्य प्राणी नवीन कर्म बाँधकर पुनः कर्जदार कभी नहीं बनता। साधना के पथ का पथिक कभी परिषहों से नहीं घबराता, वरन उन्हें अवश्य भावी या होनहार मानकर स्वीकार करता है । क्योंकि वह भली-भांति जानता है कि वही कुछ जीवन में घटता है जो होना अनिवार्य है। आप और हम भी प्रायः यही कहते हैं-'होनहार बलवान है।' इस सम्बन्ध में एक बड़ा मनोरंजक किन्तु शिक्षाप्रद उदाहरण वैष्णव साहित्य में पाया जाता है-नमस्कार किसको ? घटना इस प्रकार बताई जाती है कि एक बार एक कुए पर तीन स्त्रियाँ पानी भर रहीं थीं। वे पानी भरते-भरते आपस में हंसी-मजाक और गप-शप करती जा रही थी। संयोगवश उसी समय उधर से नारदजी घूमते-घामते निकल आए । नारदजी, नारदजी ही थे, उन्होंने तीनों के समक्ष एक बार झुककर नमस्कार किया और वहाँ से चलते बने। नारदजी के नमस्कार करते ही वे तीनों स्त्रियां खुश हुई और उनमें से एक बोली "नारदजी कितने अच्छे हैं ? उन्होंने मुझे पहचान लिया और नमस्कार भी किया। यह सुनकर दूसरी स्त्री बोली-"अरे वाह ! नारदजी ने तो मुझे पहचाना है, तभी तो उन्होंने नमस्कार किया था।" उन दोनों स्त्रियों की बातें सुनते ही तीसरी भड़क उठी और बोल पड़ी "तुम दोनों अपने आपको समझती क्या हो ? नारदजी ने केवल मुझे ही नमस्कार किया था। भूल जाओ इस बात को कि उन्होंने तुम्हें प्रणाम किया है। .. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy