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कर्तव्यमेव कर्तव्यं...!
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ही पड़ता है। इस जन्म में पाप नहीं करेंगे तो अगले जन्मों में शुभ फल प्राप्त होगा किन्तु पिछले कर्म कहाँ जाएंगे ? उदाहरण स्वरूप किसी व्यक्ति ने अपनी गरीबी हालत में किसी से दो रुपये कर्ज ले लिये । अब उसके पश्चात् संयोगवश उसके नाम लॉटरी निकल आई और वह लखपती बन गया। खूब धन प्राप्त हो जाने पर उसने स्वयं लोगों को रुपया उधार देना प्रारम्भ कर दिया और ब्याज-बट्टे से अपना काम सुचारु रूप से चलाने लगा।
किन्तु भले ही वह औरों को लाख रुपये भी कर्ज के रूप में दे दे, पर उसने जो लॉटरी निकलने से पूर्व दो रुपये कर्ज में लिये थे वे तो उसे चुकाने पड़ेंगे या नहीं? क्या औरों को लाख रुपये का कर्ज देने से उसका दो रुपये का कर्ज चुक जाएगा ? नहीं, कर्ज तो चाहे एक पाई का ही क्यों न हो, उसे स्वयं चुकाना पड़ेगा और तभी वह चुकेगा।
यह मानव-जन्म भी एक लॉटरी के समान है जो कि संयोगवश जीव को मिल गया है। इसके द्वारा अवश्य ही यह महान पुण्यों का संचय कर सकता है, यहाँ तक कि तीर्थंकर गोत्र बाँधकर मुक्ति भी हासिल कर सकता है। किन्तु पिछले जन्म में जो पाप किये होंगे चाहे वे थोड़े रहे हों या अधिक, उनमें से तो एक-एक का फल उसे अवश्य ही भोगना पड़ेगा। एक भी कर्म इधर-उधर नहीं होगा । महाभारत में कहा भी है
यथा धेनुसहस्रषु वत्सो विन्दति मातरम् । एवं पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ।।
-वेदव्यास (महा० शांतिपर्व) -जिस प्रकार बछड़ा हजारों गायों के बीच में से भी अपनी मा को ढढ लेता है, उसीप्रकार पहले का किया हुआ कर्म भी कर्ता को पहचान कर उसका अनुसरण करता है । अर्थात्-फल भोगने को बाध्य कर देता है।
भगवान महावीर तीर्थंकर थे किन्तु उन्हें भी अपने कानों में कीले ठकवाने पडं । पार्श्वनाथ प्रभु को भी कमठतापस ने पूर्व दस जन्मों की शत्रु ता के कारण हर बार उन्हें उपसर्गों में डाला। ऐसे अनेकों उदाहरण हम धर्म ग्रंथों से जान सकते हैं।
अतः कवि का यह कथन है कि उपसर्ग और परिषह ऋण का देना है यानी पूर्व जन्मों में बंधे हुए कर्मों का भुगतान करना है। इसीलिये उन्हें परम समाधि भाव से सहन करना चाहिये । आगे कहा है-'बदला लेकर फिर नया कर्ज क्यों लेना ?
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