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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
व्यापारी को लोगों की सहायता और सहानुभूति से हिम्मत बंध गई और प्राप्त हुई पूजी से उसने पुनः अपना व्यापार जमा लिया । सौभाग्य से कुछ ही समय में उसने आशा से अधिक धन कमा लिया और उन्हीं सब साहूकारों को बुलाकर बोला
"भाइयो ! मैं आपका बड़ा कृतज्ञ हूं कि आप लोगों ने मेरी विपत्ति में सहायता की, अन्यथा मैं कभी ऋण-मुक्त नहीं हो सकता था। पर आप सबकी सद्भावना से आज मैं इस काबिल हो गया हूं कि आपका कर्ज चुका सकू अतः अब कृपा करके अपने रुपये ब्याज सहित ले जाइये । मैं केवल आपके पैसे का ऋण ही चुका रहा हूँ, आपके प्रेम का ऋण तो असीम है और उसका चुकना संभव नहीं है।
बन्धुओ, जिस प्रकार घाटा खाये हुए व्यापारी ने अपने कर्तव्य का पालन किया, उसी प्रकार साहूकारों ने भी अपने कर्तव्य का पालन किया तथा एक गिरते हुए व्यक्ति को सहारा देकर पुनः उठाया। इसीप्रकार साधु और श्रावक को भी अपने कर्तव्य, यानी व्रतों के पालन में दृढ़ रहना चाहिये। तथा परिषह या उपसर्ग आने पर जिन वचनों का सहारा लेकर अपनी आत्मा को पुनः सम्हाल लेना चाहिये । उन्हें सोचना चाहिये
उपसर्ग और परिषह हैं ऋण का देना । बदला लेकर क्यों नया कर्ज फिर लेना? मानापमान जिन ने समान पहचाना, कर कर्म निर्जरा पाया मोक्ष ठिकाना।
-शोभाचन्द्र भारिल्ल भारिल्ल जी ने अपने इस पद्य में गूढ़ भावों को गागर में सागर के समान भर दिया है। उन्होंने बताया है कि पूर्वकृत कर्मों का निविड़ बन्धन होने पर ही प्राणी पर नाना प्रकार की विपत्तियाँ आती हैं उसे अनेकानेक संकटों का सामना करना पड़ता है । तथा और तो और संत-मुनिराजों को भी उपसर्गों और परिषहों से बचना असंभव हो जाता है।
बहुत से व्यक्ति आकर हमें यह कहते हैं__"महाराज ! हम संसारी प्राणियों को तो दुःख एवं कष्ट भोगना पड़ता है सो ठीक ही है पर साधु-संत तो कोई पाप नहीं करते फिर उन्हें क्यों कष्टों का सामना करना पड़ता है ?
अरे भाई ! यह ठीक है कि संत-मुनिराज अपनी साधना के कड़े नियमों का पालन करते हुए पाप नहीं करते । किन्तु पिछले जन्म के कर्मों का फल तो भोगना
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