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कर्तव्यमेव कर्तव्यं !
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व्यापारी की पत्नी उन औरतों में से नहीं थीं जो जेवर के लिए मरती हैं और पति की जान जाने का अवसर आ जाने पर भी उसे निकाल कर नहीं दे सकतीं । उस व्यापारी की पत्नी ने सहर्ष घर का सम्पूर्ण जेवर पति के हवाले कर दिया । व्यापारी ने सब आभूषणों को इकट्ठा किया और दुकान पर ले आया । उसके पश्चात् उसने सभी साहूकारों को बुलवाया और उनसे स्पष्ट कहा
गया है, और मैं
"बन्धुओ ! हाल ही में मुझे व्यापार में जबर्दस्त घाटा लग इस स्थिति में नहीं हूँ कि आप सबका पूरा ऋण चुका सकूँ । किन्तु यह मेरे घर का सम्पूर्ण जेवर मकान तथा खेत आदि जो कुछ भी हैं आपके सामने हैं। मैं चाहता हूं कि इस सबको लेकर आप सब आपस में बाँट लें तथा मुझें ऋण से कुछ हलका करें । ईश्वर ने चाहा तो भविष्य में कभी मैं आप सबका बचा हुआ ऋण भी अवश्य चुकाऊँगा ।"
साहूकार लोग व्यापारी की बात सुनकर हक्के-बक्के रह गये । पर उसकी ईमानदारी और नैतिकता से बहु प्रभावित हुए। सबके दिलों में विचार आया कि यह ईमानदार व्यक्ति हमारे रुपये कभी हजम नहीं कर सकता । इस वक्त यद्यपि इसे नुकसान उठाना पड़ा है, पर अगर इसे अपने व्यापार को संचालन करने का मौका मिल जाए तो यह सबका ऋण अवश्य ही चुका देगा। वैसे भी हमें अभी पूरा रुपया तो मिल नहीं सकता है अत: अच्छा यही है कि यह अपने व्यापार में संभल जाय ताकि अपनी प्रतिष्ठा भी बनाए रखे और हमारा रुपया भी सुरक्षित हो जाय ।
ऐसा विचार कर सब व्यापारियों ने सलाह की तथा प्रत्येक ने पच्चीस-पच्चीस हजार रुपये उस व्यापारी को पुनः दे दिये । उन्होंने कहा - भाई ! संकट का समय किसी के लिये और कभी भी आ सकता है । इसके अलावा तुम इतने नीति वान और ईमानदार हो कि हमारा पैसा कभी न कभी निश्चय ही चुका दोगे । अतः यह सब रुपया लो और पुनः अपने व्यापार को चालू करो। हमें उस समय कुछ भी नहीं चाहिए । यह जेवर और सोना वापिस घर ले जाओ और अपनी जायदाद भी रहने दो।
इस प्रकार बिना कुछ भी लिये, उलटे अपने पास से पच्चीस-पच्चीस हजार और देकर वे सब साहूकार अपने-अपने स्थान पर चले गये । यह सब क्यों हुआ ? इसलिये कि व्यापारी ने अपना कर्तव्य पूर्ण रूप से निभाया तथा सच्चाई पूर्वक अपनी सही स्थिति लोगों के सामने रख दी । अगर वह किसी प्रकार की बेईमानी करता और अपने कर्तव्य से च्युत होता तो उसका फल कभी इतना सुन्दर नहीं होता । :
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