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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
एक शहर से दूसरे शहर को जाने के लिये सड़कें बनवा देती है । पर उस पर कौन चलता है और कौन नहीं, इस पर वह विचार नहीं करती ।
इसी प्रकार भगवान ने साधु-साध्वी श्रावक और श्राविका इन चारों तीर्थों के लिए क्या कर्तव्य और क्या अकर्तव्य हैं, यह बता दिये हैं और साथ ही यह भी समझा दिया है कि कर्तव्यों का पालन करने पर आत्मा विशुद्ध बनकर उत्थान की ओर बढ़ती है तथा अकर्तव्य या अकरणीय करने पर अवनति की ओर अग्रसर हो जाती हैं । इतना सब कुछ जानकर और समझकर भी अगर व्यक्ति अपने व्रतों पर दृढ़ नहीं रहता, अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता तो समझना चाहिये कि उसके जन्म-मरण का चक्र चलता रहने वाला है ।
1. कर्तव्यों का महत्व बताते हुए एक श्लोक भी कहा गया है
कर्तव्यमेव कर्तव्य, प्राणैः
कंठगतैरपि । अकर्तव्यम् न कर्तव्यं प्राण कंठगतैरपि ॥१॥
कहा है-- चाहे प्राण कंठ में ही क्यों न आ जायें, अर्थात् मृत्यु निकट ही क्यों
न आ खड़ी हो, व्यक्ति को कर्तव्य ही करना चाहिये अकर्तव्य नहीं ।
जो महापुरुष इस बात को समझ लेते हैं, वे ही संसार-मुक्त होते हैं तथा सदा लालच दिया और न अकर्तव्य नहीं किया ।
के लिए अमर हो जाते हैं । सुदर्शन सेठ को अभया रानी ने मानने पर धमकी भी दी किन्तु उन्होंने ब्रह्मचर्यं का खंडन कर इसके अलावा रानी दोषी थी, पर उन्होंने उसका नाम भी नहीं धारण कर लिया । सती चन्दनबाला की माता रानी धारिणी ने जीभ खींचकर मृत्यु का आलिंगन किया पर शील-धर्म का पालन किया ।
बताया तथा मौन
इसी प्रकार जो धर्म और नीति का पालन करने वाले पुरुष होते हैं वे किसी भी परिस्थिति में धैर्य खोकर अकरणीय कार्य नहीं करते ।
कर्तव्य का मधुर फल
एक व्यापारी को व्यापार में बड़ा घाटा लग गया। घाटा आ जाने पर उसने विचार किया कि अगर मैं अन्य साहूकारों से कह देता हूँ कि मेरे पास कुछ भी नहीं है तो उनका नुकसान होगा अतः मुझे ऐसा नहीं करना चाहिये ।
वह घर आया और अपनी प्रतिष्ठा कायम रखने के लिये तथा औरों को अधिक हानि न हो इसलिये पत्नी से बोला - " अपने घर में पड़ा हुआ जो भी सोना या जेवर है वह इस समय दे दो ।"
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