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कर्तव्यमेव कर्तव्यं...!
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
इन दिनों हमारा विषय परिषहों को लेकर चल रहा है । भगवान की आज्ञा है कि अगर साधक को संसार-मुक्त होना है तो उसे अपने अनियंत्रित जीवन को व्रतों एवं नियमों से नियन्त्रित या संयमित करना चाहिये। साथ ही ध्यान रखना चाहिये कि लिये हुए व्रत किसी भी स्थिति में और कैसे भी कष्ट आने पर भंग न हों।
जीवन में परिषहों का आना कोई बड़ी बात नहीं है। साधु के लिये तो कदम-कदम पर परिषह आ उपस्थित होते हैं क्योंकि सदोष आहार वे ग्रहण नहीं करते और निर्दोष मिलने में कठिनाई होती है । कहीं कोई दोष सामने आता है और किसी घर में कोई दोष । इस प्रकार उन्हें अनेकों बार क्षधा-परिषह सहन करना होता है। और इसी प्रकार पिपासा-परिषह का भी सामना पड़ता है।
.. मुनिव्रत अंगीकार करने के पश्चात् सचित्त जल का साधक के लिये सर्वथा त्याग होता है केवल अचित्त जल ही वे ग्रहण कर सकते हैं । अचित्त जल अथवा उष्ण जल ही उनके काम आता है अतः ऐसा जल मिलना कम से कम विचरण करते हुए मार्ग में तो अत्यन्त कठिन हो जाता है। किन्तु उसके न मिलने पर भी किसी भी अवस्था में साधु शीतोदक ग्रहण न करे, यह शास्त्रों का विधान है।
कर्तव्याकर्तव्य की पहचान शास्त्रों का कर्तव्य मार्गदर्शन करना है। वे साधक को साधना के पथ पर चलने की सम्पूर्ण विधियां बताते हैं, किन्तु उन पर चलना साधक की दृढ़ता या कायरता पर निर्भर है। जिस प्रकार सरकार एक गांव से दूसरे गाँव के लिए, और
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