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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग कबीर तो तुलसीदास जी से एक कदम और आगे बढ़ गये हैं। उनका कथन है
सांप बीछि को मंत्र है, माहुर झारे जात ।
विकट नारि पाले परी, काटि करेजा खात ।। क्या कहा है इन्होंने ? कहा है कि सांप और बिच्छ के काटने पर तो उनका जहर मंत्र से उतर जाता है, किन्तु नारी जब पल्ले पड़ जाती है तो वह कलेजे को ही खा डालती है।
बन्धुओ, ये कथन अवश्य ही स्त्रियों के लिये कहे गये हैं और इनके द्वारा नारी जाति की तीव्र निन्दा झलकती है। किन्तु अगर हम गम्भीरता से विचार करते हैं तो इन कवियों के कथन अपवाद ही कहला सकते हैं। उदाहरण के तौर पर इसी वसुधरा पर तो सावित्री जैसी सती ने जन्म लिया था जो यमराज के मुंह से अपने पति सत्यवान को छुड़ा लाई थी। यहीं पर सीता भी हुई थी, जिसने वनवास में भी अपने पति रामचन्द्रजी का साथ नहीं छोड़ा था। आप सभी जानते हैं कि वनवास केवल 'राम' को दिया गया था, सीता को नहीं। उलटे सभी ने उसे अयोध्या में रहने का ही आग्रह किया था। किन्तु सीता ने स्पष्ट कह दिया था कि जिस प्रकार छाया शरीर को नहीं छोड़ सकती, इसी प्रकार मैं भी अपने पति को वन में भटकने के लिये भेजकर आनन्द से अयोध्या में नहीं रह सकती। इनके सुख में ही मेरा सुख और इन्हीं के दुख में मुझे दुख है। सीता के विषय में सारा संसार जानता है कि उस पतिव्रता ने कितने कष्ट सहन किये और रावण द्वारा हरण किये जाने पर भी किस प्रकार अपने सतीत्व को रक्षा की। इसीलिये अग्नि-परीक्षा में भी वह खरी उतरी तथा कुड में धधकती हुई अग्नि शीतल जल में बदल गई।
ऐसे उदाहरणों से साबित होता है कि इस विश्व में नारी-रत्नों की भी कमी नहीं रही और वे आपत्ति, विपत्ति आदि सभी प्रकार की कसौटियों में खरी उतरी हैं । उन्होंने पति का प्रत्येक समय में साथ दिया है और गृहस्थ धर्म व आत्म-धर्म का भी यथाविधि पालन किया है । उन्हें लक्ष्य में रखकर ही कहा गया है
'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता ।" अन्त में केवल इतना ही कहना है कि इस संसार में अगर नकल है तो असल भी अवश्य है और समय आने पर उसकी परख हो जाती है।
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