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असली और नकली
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समय साथ नहीं देते । मित्रता कृष्ण और सुदामा जैसी होनी चाहिये । अधिकतर हम देखते हैं कि साथ-साथ पढ़ने और रहने वाले दो विद्यार्थियों में से भी एक बड़ा होने पर अगर किसी ऊंचे पद पर पहुँच जाता है और दूसरा भाग्यहीनता का शिकार बनकर रह जाता है तो उच्च पदवीधारी व्यक्ति दूसरे को अपना मित्र कहने में भी शर्म का अनुभव करता है । समय-असमय अपने घर बुलाना तो दूर की बात है ।
सच्ची जीवनसंगिनि कौन सी ?
अब हमारे सामने नारी का विषय आता है । नारी की परीक्षा भी विपत्ति में हो जाती है । जब तक पति अपनी स्त्री को अच्छा खिला-पिला सके, अच्छे वस्त्राभूषण पहना सके और जीवन के सभी सुख-साधनों को प्रदान कर सके, तब तक तो वह पूर्ण सन्तुष्ट और प्रसन्न रहती है । किन्तु अगर कभी पति को व्यापार में घाटा आ गया या दिवाला निकलने की नौबत आई तथा उस समय उससे लज्जा रखने के लिये जेवर माँगे जायँ तो वह फौरन इन्कार कर देगी और कहेगी --- " गहने मेरे मायके के हैं, तुम्हारा इन पर क्या अधिकार है ?"
इसके अलावा जब पुरुष की वृद्धावस्था आ जाती है और वह कमा नहीं पाता तो वही स्त्री पति की सेवा करना तो दूर उलटे उसकी मृत्यु की कामना करते लगती है ।
राजा परदेशी ने जब अपना सम्पूर्ण समय आत्म-कल्याण में लगाना आरम्भ कर दिया तो उसकी रानी सूर्यकान्ता ने राजा को विष दे दिया। इससे साबित हो जाता है कि स्वार्थ साधना में कमी होते ही स्त्री अपना रूप बदल देती है ।
इसीलिये तुलसीदास जी ने 'अयोध्याकाण्ड' में कहा है
सत्य कहहिं कवि नारि सुभाऊ, सब विधि अगम अगाध दुराऊ ।
निज प्रतिबिम्ब मुकुर गहे जाई । जानि न जाय नारिगति भाई ॥
कवि का कहना है कि- "मैं सत्य कहता हूं, नारी का स्वभाव पूर्ण रूप से अगम्य यानी समझा न जा सकने वाला और कपट से भरा हुआ होता है । व्यक्ति दर्पण में पड़ने वाले अपने प्रतिबिम्ब को तो फिर भी पकड़ सकता है पर नारी की गति यानी उसके कार्य-कलाप को कभी नहीं समझ सकता ।
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