SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७२ मित्र हैं, साथ-साथ रहते हैं । किन्तु अगर एक की जाय और पैसे की जरूरत पड़ने पर वह अपने मित्र के ही बगलें झाँकने लगेगा या कह देगा --- " दोस्त ! इस खाली है ।" किन्तु संसार में सभी व्यक्ति ऐसे नहीं होते । ऐसे-ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जो संकट में अपने मित्र की तो क्या, शत्रु की भी सहायता करते हैं । आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग पत्नी या पुत्र बीमार पड़ पास जाएगा तो मित्र तुरंत समय तो मेरा हाथ भी शत्रु को मारता हूं अब्राहम लिंकन ऐसे ही महापुरुष थे । वे जिस प्रकार अपने सरलता एवं सौजन्यता का व्यवहार करते थे, उसी प्रकार अपने बड़ा प्र ेमपूर्ण संबंध रखते थे । यह देखकर एक बार उनके एक मित्र ने आपका क्या रवैया है ? शत्रु को तो जान से मार भी दोस्त के समान पेश आते हैं ।" हितोपदेश में कहा गया है परोक्ष कार्य हन्तारं वज्र्जयेत्तादृशं मित्र मित्र की बात सुनकर लिंकन हँस पड़े और बोले - " भाई ! मैं शत्र को मारता ही तो हूँ । फर्क केवल यह है कि तुम उन्हें जान से मार डालना चाहते हो और मैं मित्र बनाकर मारना चाहता हूँ ।" मित्रों के साथ शत्रुओं के साथ भी झुंझलाहट के साथ कहा - "यह देना चाहिये । किन्तु आप उनसे कितनी महानता थी लिंकन में और कितने उच्च विचार थे उनके ? उनका शत्रु, शत्रु के रूप में मरकर मित्र बन जाता था । अगर ऐसी गहराई और महानता से व्यक्ति विचार करे तभी वह सच्चा मित्र बन सकता है । वह मित्र, मित्र नहीं कहला सकता जोकि प्रत्यक्ष में तो खुशामद और चापलूसी करके मित्रता का दरंभ करे और परोक्ष में निंदा-बुराई करता रहे। Jain Education International प्रत्यक्ष प्रियवादिनम् । विषकुम्भं पयोमुखम् ॥ - मुँह के सामने मीठी बातें करने और पीठ पीछे छुरी चलाने वाले मित्र को विष से भरे हुए और ऊपर से दूध डले हुए घड़े के समान त्याग देना चाहिए । तात्पर्य कहने का यही है कि व्यक्ति को बहुत ठोक-बजाकर ही किसी से मित्रता करनी चाहिये । जिस तिस पर विश्वास करना, और उसे मित्र मान लेना बुद्धिमानी नहीं है, क्योंकि ऐसे मित्र कभी आवश्यकता पड़ने पर और विपत्ति के For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy