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________________ असली और नकली १७१ वास्तविकता का ध्यान आया और वे बड़ी प्रसन्नता पूर्वक लकड़हारे का कलेजा लेकर विष्णु जी के पास पहुंच गये । विष्णु जी के समक्ष पहुँचकर नारद जी बोले--"देखिये प्रभो ! मैं आपके लिये कलेजा लेकर आ गया हूँ, भला आपके कष्ट को मिटाने के लिये मैं पीछे रह सकता था ?" विष्णु नारद जी की बात सुनकर मुस्कुराए और बोले-"अच्छा किया नारद जी । पर आप यह बताइये कि इस काम में आपको इतनी देर कैसे लग गई ?" भगवान के इस प्रश्न के उत्तर में नारद जी ने अथ से इति तक का सारा हाल नमक-मिर्च लगाकर कह सुनाया कि वे कितनी कठिनाई से और भक्त की खोजबीन करके यह कलेजा ला पाये हैं। नारद जी की बात सुनकर विष्णु हँस पड़े पर साथ ही बोले-'मेरे लिये सच्चे भक्त और धर्मात्मा की खोज करने में आपको वास्तव में बड़ी दिक्कत हुई, किन्तु ऋषि जी ! क्या आपके पास कलेजा नहीं था ?" बंधुओ, आप समझ गए होंगे कि विष्णु ने ऐसा क्यों कहा ? कारण यही है कि जो नारद अपने आपको बड़ा धर्मात्मा और भगवान का सच्चा भक्त कहकर डींगें हांकते थे, वे स्वयं ही विष्णु भगवान के कष्ट के समय अपना कलेजा देने के लिये तैयार नहीं हुए तथा सारे संसार में दूसरे का कलेजा लाने के लिये घूमते फिरे । विष्णु ने तो केवल परीक्षा लेने के लिये पेट-दर्द का बहाना किया था। पर परीक्षा की कसौटी पर नारद ऋषि जैसे महापुरुष खरे नहीं उतरे, खरा उतरा एक साधारण लकड़हारा । यही धर्म-परीक्षा होती है । मित्र कैसा हो? अभी कहे हुए दोहे में धीरज और धर्म के पश्चात् मित्र का उल्लेख किया गया है कि आपत्तिकाल में सच्चे मित्र की परीक्षा होती है। वैसे आज की दुनिया में किसी को भी मित्रों की कमी नहीं होती । चाय का एक कप पिलाते ही पीने वाला मित्र बन जाता है, एक बार सिनेमा दिखाते ही सिनेमा देखने वाला आपको मित्र कहने लगता है । किन्तु ऐसे मित्र क्या संकट में आपके काम आ सकते हैं, और आपके दुःख को कम कर सकते हैं ? नहीं, वे मित्र केवल सुख के साथी होते हैं, खिलातेपिलाते रहो और सैर-सपाटे कराते रहो, तभी तक वे मित्रता निभाते हैं । आपके दुःख में वे काम आएं, ऐसी आशा उन लोगों से नहीं की जा सकती। उदाहरण स्वरूप दो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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