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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
बेबकूफ होगा जो अपना कलेजा निकालकर देगा ? चले जाइये यहाँ से | बड़े आए हैं कलेजा लेने वाले ।"
नारद जी अपना सा मुँह लेकर वहां से खिसक गये, पर उन्हें भगवान का काम करके अपने को भक्त साबित करना था अतः एक-एक करके कई भक्तों के पास पहुंचे । किन्तु अपना कलेजा तो किसी ने भी नहीं दिया, उलटे नाना प्रकार के अपशब्द कहे । सबकी बातें सुनते हुए वे तीर्थराज प्रयाग से रवाना होकर बड़े-बड़े ठाकुर - द्वारों में और मन्दिरों में भी गये जहाँ भक्तों की मंडलियाँ आकाश को फाड़ देने वाले ऊँचे स्वरों में कीर्तन कर रही थीं और विष्णु का गुणगान कर रही थीं पर नारद जी के लाख समझाने पर भी किसी ने अपना कलेजा तो नहीं दिया सो नहीं ही दिया ।
आखिर हारकर वे एक जंगल में निकल गये और एक वृक्ष के नींचे बैठकर उदास मन से नाना प्रकार के विचार करने लगे । उसी वृक्ष पर एक लकड़हारा चढ़ा हुआ था और अपनी कुल्हाड़ी से लकड़ियाँ काट रहा था ।
उसने जब नारद जी को इस प्रकार गमगीन देखा तो पूछा - " ऋषि जी ! क्या बात है ? आप इस प्रकार सोच में डूबे हुए क्यों बैठे हैं ?"
नारद जी निराशा से भरे हुए तो थे ही, बोले 'तुम जानकर क्या करोगे ? इस संसार में कोई भी भगवान का सच्चा भक्त नहीं है । सब दिखाने की भक्ति करते हैं ।"
लकड़हारा बेचारा अपढ़ था पर भगवान और भक्त का उल्लेख सुनकर उसके कान खड़े हो गये । वह आजिजीपूर्वक पूछने लगा
"महाराज; कृपा करके मुझे बताइये तो सही कि आखिर बात क्या है ?"
इस पर नारद जी ने अनमने ढंग से संक्षेप में अपनी कठिनाई बता दी । लकड़हारा यह सुनते ही बोला - "महाराज ! इतनी सी बात के लिये आप इतने परेशान हो रहे हैं ? अभी, इसी क्षण मेरा कलेजा भगवान के लिये ले जाइये । वह अत्यन्त गद्गद स्वर से कहने लगा- मेरे धन्य भाग्य कि आज मुझे ऐसा अवसर मिल रहा है । मेरा शरीर स्वयं भगवान विष्णु के काम आए, इससे बढ़कर इसका और क्या फायदा है । देर मत कीजिये, आप शीघ्रातिशीघ्र मेरा कलेजा ले जाइये । मुझे एक-एक क्षण का विलम्ब भी अब अच्छा नहीं लग रहा है ।"
नारद जी को प्रथम तो लकड़हारे की बात का विश्वास ही नहीं हुआ और आँखें फाड़-फाड़कर उसे देखने लगे । सोचने लगे कि यह कोई स्वप्न तो नहीं है ? पर जब लकड़हारे ने पुनः उन्हें अपने काम को पूरा करने की याद दिलाई तो उन्हें
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