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असली और नकलो
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यह कहकर नारद ऋषि तीर की तरह वहां से दौड़ गये और सबसे पहले कुंभ के मेले पर प्रयाग जा पहुंचे। वहाँ गंगाजी के किनारे पर असंख्य भक्त जोरशोर से भगवान विष्णु का नाम जपते हुए भक्तिभाव से स्नान कर रहे थे । नारद जी यह देखकर बड़े प्रसन्न हुए और सोचने लगे - "ओह, यहाँ तो अनेकों भक्त मौजूद हैं। मुझे एक ही तो क्या, अनेकों धर्मात्मा व्यक्तियों के कलेजे मिल सकते हैं भगवान के पेट का दर्द मिटाने के लिये ।"
यह विचार करते-करते वे एक व्यक्ति के समीप जा पहुंचे जो जोर-जोर से विष्णु भगवान के नाम का उच्चारण करता हुआ गंगा में स्नान कर रहा था । उस व्यक्ति से नारद जी बोले - "भक्तराज; क्या तुम भगवान विष्णु के सच्चे भक्त हो ?"
" अरे वाह ! क्या तुम्हें दिखाई नहीं देता कि मेरी जबान पर विष्णु के अलावा और किसी का नाम आया ही नहीं है । मेरे भक्त होने में क्या तुम्हें कोई संदेह है ? ” व्यक्ति ने उत्तर दिया और पुनः जल्दी जल्दी विष्णु का जप करता हुआ स्नान करने लगा ।
नारद जी उस भक्त का उत्तर सुनकर खुश हुए और बोले - "तो भाई ! मेरी बात सुनो, आज भगवान विष्णु जी के पेट में असह्य दर्द हो रहा है, क्या तुम मुझे उनके लिये औषधि दे सकते हो ?"
वह भक्त प्रसन्न होकर बोला- “मेरा लाखों का कारोबार है. जितना धन और जितनी दवाइयाँ चाहो भगवान के लिये ले जाओ । चाहो तो पूरी दवाइयों की दुकान ही खरीद लो ।”
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नारद जी मन में विचार करने लगे- 'वास्तव ही सच्चा भक्त और बड़ा भारी धर्मात्मा व्यक्ति है यह अब मेरा कार्य बनने में क्या देर लगेगी ?" यह सोचते हुए वे प्रत्यक्ष में बोले
" बंधु ! भगवान के पेट का दर्द साधारण नहीं है । किसी अन्य दवाई से वह ठीक नहीं हो सकता । उसके लिये एक ही औषधि है और वह है किसी सच्चे भक्त और धर्मात्मा पुरुष का कलेजा । तुम वास्तव में ही सच्चे भक्त और धर्मात्मा प्राणी हो, अत: अपना कलेजा निकाल कर मुझे दे दो ताकि भगवान का कष्ट मिट जाय ।"
यह सुनते ही वह भक्त चोट खाए हुए सर्प की तरह उछल बबूला होकर कह उठा - " आपका दिमाग खराब हो गया है क्या ?
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पड़ा और आग - संसार में कौन
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