SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ असली और नकली १६७ अवसर बार-बार नहीं आता। यह सच है कि मैं यहीं से उन्हें वन्दन करु गा तो वे जान लेंगे। पर मैं अपने चर्म-चक्षुओं से उन्हें कब देखगा ? इसके अलावा अर्जुनमाली के कारण मार्ग में भय अवश्य है, पर मौत का भय कहाँ नहीं है ? क्या मैं यहाँ रहकर नहीं मर सकता ? इस शरीर को एक दिन तो जाना ही है फिर स्वयं भगवान के दर्शन करने जाते समय या धर्म-कार्य करते समय चला जाये तो क्या हर्ज है ? आप मुझे प्रभु के दर्शन करने से न रोकें।" इस प्रकार विनम्रता पूर्वक माता-पिता से आज्ञा लेकर सेठ सुदर्शन भगवान के दर्शन के लिये रवाना हो गये । उनके हृदय में तनिक भी मृत्यु का भय नहीं था, उलटे धर्म का बल जाग रहा था। एक कवि ने ऐसे ही प्रसंग को लेकर कहा है धर्म को भेंट जो इन्सान अपनी जान करते हैं, अवध तक जिंदगी के वास्ते सामान करते हैं। नहीं है शय कोई ऐसी, जो वाइस खौफ हो उनको, धर्म के वास्ते जो कशमकश इन्सान करते हैं। मुबारिक जिंदगी उनको जो कर दें धर्म पर कुरबान, दमे-आखिर तलक इस रास्ते का ध्यान करते हैं। कवि कहता है-उन महामानवों का जीवन धन्यवाद का पात्र है जो अपने आखिरी श्वास तक के लिये अपना प्रत्येक प्रयत्न करते हैं तथा आवश्यकता पड़ने पर अपनी जान भी भेंट कर देते हैं। उन शूरवीर प्राणियों के लिए धर्म-मार्ग बेखौफ होता है, अर्थात् वे स्वयं किसी भी बाधा, परिषह और उपसर्ग से भयभीत नहीं होते तथा पूर्ण आत्म-बल के सहारे बढ़ते चले जाते हैं । हमारे सुदर्शन सेठ भी इसी प्रकार धर्म के मार्ग पर बढ़े चले जा रहे हैं और भगवान के दर्शन की चाह उन्हें परम प्रसन्नता से उन्हें भगवान की ओर खींचकर ले जा रही है। किन्तु उपसर्ग और परिषह भी कब पीछे रहते हैं ? प्रत्येक महापुरुष को वे अपनी कसौटी पर कसे बिना आगे नहीं बढ़ने देते । सेठ सुदर्शन के सामने भी हत्यारा अर्जुनमाली यक्ष का मुद्गर लिये हुए साक्षात् यम के समान आ खड़ा हुआ। लेकिन धर्मवीर सेठ डरे नहीं और उन्होंने यही प्रार्थना की -. "हे प्रभो ! अगर मेरी जिन्दगी रही तो प्रत्यक्ष में आकर दर्शन करूंगा अन्यथा इसी क्षण मैं संथारा ग्रहण करता हूँ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy