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असली और नकली
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो !
__ कल हमने संवर तत्व के सत्तावन भेदों में से दसवें भेद पिपासा-परिषह को लिया था, जिसका अर्थ है साधुवृत्ति अंगीकार करने के बाद कड़ी से कड़ी प्यास लगने पर भी अचित्त पानी न मिले तो सचित जल ग्रहण न करना। जल के अभाव में होने वाला कष्ट पिपासा-परिषह कहलाता है। सच्चे साधु अगर अचित्त जल न मिले तो इस परिषह को समभाव से सहन करते हैं। चाहे प्राण भी क्यों न चले जायें वे सचित्त जल ग्रहण नहीं करते । इसका ज्वलन्त उदाहरण त्यागी मुनि श्री मोतीलाल जी थे, जिनके विषय में मैंने कल बताया था।
- धर्म के लिये प्राणों की भेंट हमारे इतिहास में ऐसे महापुरुषों के अनेक प्रसंग आते हैं जिन्होंने अपने महाव्रतों के पालन करने के लिये तथा धर्म की प्रभावना के लिये अपने प्राणों को भी न्यौछावर किया था। पूज्य श्री धर्मदास जी म० ऐसे ही साधु-रत्न थे। आपने भी धर्म की रक्षा के लिये अपने प्राणों की बाजी लगा दी थी।
श्री धर्मदासजी म० के निन्यानवे शिष्य थे। उनमें से एक शिष्य एक बार अस्वस्थ हुआ और जीवन की आशा न रहने पर धार शहर में उसने संथारा ग्रहण किया।
किन्तु कुछ दिन पश्चात् उसकी भावना बदल गई और उसने अन्य संतों से कहा- "मुझे खाने-पीने के लिए दो।" संतों ने समझाया कि समाधि धारण करने के पश्चात् अन्न-जल ग्रहण नहीं करना चाहिए, पर शिष्य माना नहीं।
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