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________________ समझ सयाने भाई ! १६१ को भाते हुए धर्म-पथ पर बढ़ना चाहिये। इन्हीं भावनाओं का महत्व बताते हुए पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी महाराज ने अपने सुन्दर पद्य में कहा है जग है अनित्य नहीं, शरण संसार माही, भ्रमत अकेलो जीव, जड दोउ भिन्न है। परम अचि लखी, देह तजी आश्रव को, संवर निर्जरा ही तें होय भव छिन्न है। चित्त में विचारी लोकाकार बोधबीज सार, सम्यक् धरम उर धारो निश दिन है। कहे अमीरिख बारे भावना यों भाव उर, धारे जिनवेण एन ताको धन धन है ।। यह जगत नश्वर है, प्रत्येक वस्तु अनित्य है। अतः इस जीव के लिये कोई भी शरणभूत नहीं है । जीव अकेला ही इस संसार में आता है और अकेला ही पुनः जाता है । यह देह जो उसे प्रात्त हुई है, अनेक अशुद्ध, एवं घृणित पदार्थों से निर्मित है अतः यह मनुष्य का साध्य नहीं है। इसे साधन बनाकर ही मुक्ति के अभिलाषी प्राणी को आश्रव से यानी कर्मों के आगमन से बचना चाहिए तथा संवर एवं निर्जरा के द्वारा पुनः पुनः जन्म लेने से छुटकारा प्राप्त करना चाहिये। बोधि-दुर्लभ प्रत्येक मनुष्य को बोध प्राप्त करना चाहिये कि मैंने अनंत काल तक नरक और निगोदादि के कष्ट भोगे हैं और उसके पश्चात् भी असंख्य जन्म लेकर त्रस पर्याय प्राप्त की। किन्तु त्रस पर्याय प्राप्त होने पर भी विकलेन्द्रिय रहकर अज्ञानावस्था में समय गँवाया है। और फिर किसी प्रकार प्रबल पुण्यों के फलस्वरूप यह पाँचों इन्द्रियों और मन से परिपूर्ण मानव-शरीर मिल पाया है। अगर अब भी हमने सम्यक्त्व पाकर उसका लाभ नहीं उठाया तो इसे पाने से क्या हासिल होगा ? कुछ भी नहीं। विद्वत्रत्न पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने भी प्राणी को बोध देते हुए समझाया है अंगोपांग पूर्ण होने पर भी चिर जीवन पाना, चिर जीवन पाकर भी सुन्दर शीलयुक्त हो जाना। चिन्तामणि के सदृश परम सम्यक्त्वरत्न सुखदायो, दुर्लभ है, दुर्लभतर है रे ! समझ सयाने भाई ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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