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समझ सयाने भाई !
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-इच्छापूर्वक कष्ट, परिषह एवं उपसर्ग आदि सहन करने से सकाम-निर्जरा की उत्पत्ति होती है, जो कि आदर्श तपस्या है और जिसके फलस्वरूप कर्म क्षय होते हैं।
तो बन्धुओ, ग्रहण किये हुए व्रतों को तथा अनमोल धर्म को प्राप्त करने के बाद कैसा भी संकट क्यों न आए और कितने भी परिषह क्यों न सहन करने पड़ें, उन्हें छोड़ना नहीं चाहिये । सोना कसोटी पर कसने से ही अपनी परख करवाता है, इसी प्रकार धर्म और व्रत-नियम, उपसर्ग और परिषहों की कसौटी पर कसे जाने पर ही फल प्रदान करते हैं तथा उसी समय साधक की परीक्षा होती है। अतः प्रत्येक साधक को प्राणों की परवाह छोड़कर अपने वतों का पालन करना चाहिये । संस्कृत के एक श्लोक में कहा गया है
"प्राणान्तेपि न भक्तव्यम् गुरुसाक्षे कृतं व्रतम् ।
.... ... ... .."प्राणाः जन्मनि जन्मनि ॥" कहते हैं-गुरु के द्वारा ग्रहण किये हुए व्रतों को प्राण जाने पर भी भंग नहीं करना चाहिये । क्योंकि प्राण तो प्रत्येक जन्म में मिल जाते हैं, किन्तु व्रत धारण करने का संयोग सदा नहीं मिलता।
मरना कबूल है
हमारे अनेक भाई-बहन आज भी ऐसे हैं जो चाहे जैसी बीमारी आ जाय और डॉक्टर लाख बार क्यों न कहे, पर वे अपने नियमों का भंग हो ऐसी वस्तु ग्रहण नहीं करते । उनका यही कथन होता है-"मरना तो एक दिन है ही, फिर अपने नियमों को कैसे छोड़ें?"
एक बार हम वर्धा की ओर गये। वर्धा के समीप बायफड़ नामक एक गांव है। वहां का पटेल जबर्दस्त मांसाहारी था। जीवों की हड्डियों और मुर्गियों के पंख आदि से उसके मकान के बाजू में रहा हुमा एक बड़ा सारा खड्ढा भी भर गया था।
हमारे वहां पहुंचने के पश्चात् उसने कभी-कभी हमारे यहां आना प्रारम्भ किया और जिनवाणी में रुचि लेनी शुरू की। धीरे-धीरे उसके मन पर सत्संगति का असर पड़ा और वह दुखी होता हुआ कहने लगा-"महाराज! मैंने जीवन भर महा-पाप किये हैं, इनसे मेरा छुटकारा कैसे होगा ?"
मैंने उसे दिलासा दी और कहा-"भाई ! तुमने अज्ञानावस्था में पाप किये हैं पर अगर उनके लिये पश्चात्ताप करके आगे से पाप-कर्म करना छोड़ दो तो भी
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