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________________ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग एक समय जबकि मगन मुनिजी उनकी सेवा में थे और साथ ही विचरण कर रहे थे । एक गांव की ओर चले । भयंकर गर्मी पड़ रही थी और मोतीलालजी म०, मगन मुनिजी तथा करनीलाल जी म० आगे बढ़ते गये । अस्वास्थ्य की दशा में तथा भीषण गर्मी में चलते हुए सभी को प्यास का अनुभव हुआ और मोतीलाल जी म०, को तो तीव्र ज्वर, साथ ही सन्निपात भी हो गया । यद्यपि मार्ग में शीत जल प्राप्त हो सकता था किन्तु साधु कब अपना व्रत भंग करके सचित्त जल ग्रहण करता है ? १५८ तो जब मोतीलाल जी म० का स्वास्थ्य चिंतनीय हो गया तो मगन मुनिजी को उनके पास छोड़कर करनीलाल जी म० पानी की गवेषणा में आगे गये । उन्हें लौटकर आने में देर लगी और इधर पिपासा - परिषह को परम शांतिपूर्वक सहन करते हुए मोतीलालजी म० स्वर्गवासी हो गये । मगन मुनिजी के द्वारा ही उन्होंने संथारा ग्रहण किया था । I तात्पर्य यही है कि चाहे प्राण चले जायें, किन्तु मुनिराज सचित्त जल का कभी स्पर्श भी नहीं करते । यहाँ यह भी ध्यान में रखने की बात है कि जिस प्रकार संयम मार्ग में बढ़ने वाले साघु क्षुधा की तीव्रता होने पर भी सदोष आहार नहीं लेते तथा पिपासा - परिषह के असीम होने पर भी सचित्त जल को ग्रहण नहीं करते, उसी प्रकार सद् श्रावक को भी अभक्ष्य को अंगीकार नहीं करना चाहिए । धर्मवीर व्यक्तियों का गौरव इसी में है कि वे महा-संकट के समय में भी अपने धर्म से मुँह न मोड़ें तथा अपने कर्तव्यों से च्युत न हों । श्रावकधर्म की महत्ता बन्धुओ, आपको जानना चाहिये कि साधु के तथा श्रावकों के नियमों में यद्यपि अन्तर होता है, किन्तु श्रावक या सद्गृहस्थ को पूर्णतया छूट नहीं रखनी चाहिये। यह ठीक है कि परिषहों को सहन करने में उनके बीच तरतमता होती है। और न्यूनाधिकता भी आ जाती है, पर वहां भी भावना महत्वपूर्ण होती है । आपने अबड़ संन्यासी के विषय में सुना होगा, जिनके सात सौ शिष्य थे । यद्यपि उनके लिये सचित्त जल का त्याग नहीं था किन्तु अदत्त अर्थात् बिना दिए जल नहीं लेना ऐसा व्रत लिया था, अटवी में किसी गृहस्थ का संयोग नहीं मिलने के कारण सभी ने अनशन करके अपने प्राण त्याग दिये पर अदत्त जल ग्रहण नहीं किया । इसीलिये मेरा कहना है कि साधु-पुरुषों के समान ही श्रावकों को भी अपने व्रतों के अनुष्ठान में पूर्णतया सजग रहना चाहिये । योगशास्त्र में कहा गया है Jain Education International " सकाम निर्जरा सारं तप एव महत् फलम् ।" For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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