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समझ सयाने भाई !
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और शरीर की आवश्यकता के प्रति उपेक्षा रखते हुए आत्म-चिंतन में लीन रहते हैं । यहाँ तक कि समाधिभाव धारण करके प्राण त्याग भी हो जाय तो परम शांतिपूर्वक शरीर छोड़ देते हैं ।
'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' में कहा गया है
तओ पुट्ठो पिवासाए, दोगुछी लज्जसंजए । सीओदगं न सेविज्जा, वियडस्सेसणं चरे ॥
अध्ययन २, गा. ४
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भगवान महावीर ने संयम की सही साधना करने वाले के लिए कहा है'तओ पुट्ठो', अर्थात् उसके पीछे, यानी क्षुधा के पीछे पिपासा का अनुभव करने पर भी कदाचार से घृणा करने वाला साधु सीओदगं, यानी शीतजल, दूसरे शब्दों में सचित्त जल का सेवन कदापि न करे । अपितु प्रासुक जल की खोज करे ।
इसी विषय को और भी स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया हैछिन्नावासु पंथेसु आउरे सुपिवासिए । परिसुक्क मुहाsदोणे तं तितिक्खे परीसहं ।।
उत्तराध्ययन सूत्र, २-५
अर्थात् गरमी के कारण लोगों के आगमन से रहित मार्ग में अति तृषा से आकुल और परिशुष्क मुख हुआ साधु भी अदीन मन से पिपासा के इस परिषह को सहन करें ।
भावार्थ यही है कि भले ही ग्रीष्म ऋतु का ताप कितना ही प्रखर हो और मार्ग में विचरण करते हुए साधु को असह्य प्यास सताये, पर फिर भी वह सचित्त जल का कभी उपयोग न करे तथा समता पूर्वक पिपासा परिषह को सहन करे, इसी को सच्ची साधुवृत्ति का धारण करना कहा जा सकता है ।
और वास्तव में ऐसा होता भी है । अनेक बार संत अपने प्राण - त्याग कर देते हैं किन्तु ग्रहण किये हुए व्रतों का भंग नहीं करते। एक उदाहरण आपको बताता हूं जो कि हमारे मगन मुनि जी का आंखों देखा है ।
परिषह - विजय
बोदवड़ में मोतीलालजी कोटेचा थे । घर भी उनका बड़ा सम्पन्न था और परिवार भी । पाँच भाई थे और सभी एक-दूसरे पर जान देने वाले । किन्तु मोतीलाल जी को मानव जन्म की कीमत महसूस हो गई और उन्होंने संसार से विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण कर ली । वे पूज्य ही जवाहरलाल जी म० के शिष्य बने और शूरवीरता से सच्चे मायने में संयम का पालने करने लगे ।
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