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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
बात दूसरी है कि आप लोग अपना पेट भरने के लिए धन का संग्रह तो करते ही हैं साथ ही वर्षों के लिए अनाज आदि का संग्रह करके अपने भंडार भी भर लेते हैं । इसलिये आपको क्ष धा-परिषह सहन करने की नौबत कम ही आती है।
किन्तु साधुओं के लिये यह बात नहीं है। वे न तो अपने पास पैसा ही रखते हैं और न ही अन्न का संचय करते हैं । यहाँ तक कि सुबह भिक्षा लाने के पश्चात् वे शाम की भी फिक्र नहीं करते, फिर कल की बात तो दूर होती है। आहार का वक्त होने पर वे अपने स्थान से निकलते हैं और निर्दोष आहार मिल जाता है तो ले आते हैं । भिक्षा सदोष होने पर या न मिलने पर वे परम शांति पूर्वक लौट आते हैं तथा अपने ज्ञान, ध्यान में लग जाते हैं ।
अनेक बार ऐसे प्रसंग आते हैं जबकि निर्दोष आहार नहीं मिलता और उन्हें भूखा रहना पड़ता है। आप जानते ही हैं कि शरीर खुराक मांगता है और वह न मिलने पर साधारण व्यक्ति आकुल-व्याकुल हो जाता है। किन्तु साधारण व्यक्ति और साधु में जमीन आसमान का अन्तर होता है। भिक्षा के मिलने और न मिलने की स्थिति में भी साधु के हृदय में किसी प्रकार की व्याकुलता अथवा खेद उत्पन्न नहीं होता है। इसी को क्ष धा-परिषह पर विजय पाना अथवा परिषह को सहना कहते हैं।
तो आज हमें क्ष धा-परिषह के समान ही महत्व रखने वाले संवर के पिपासापरिषह को लेना है । यह संवर का दसवां भेद है । जीवन के धारण करने के लिए अन्न के समान ही जल भी आवश्यक है, बल्कि अन्न से अधिक इसकी आवश्यकता रहती है । अन्न के अभाव में तो मनुष्य कई घन्टे, कई दिन और कई महीने भी जीवित रह जाता है, किन्तु जल के बिना वह अधिक समय जीवित नहीं रह सकता । इसलिये ही जीवन प्रदान करने वाले जल का अभाव पिपासा-परिषह कहलाता है । पिपासा-परिषह
__ आप लोगों को तो यह परिषह सहन करने का अवसर क्वचित् ही आ पाता होगा और वह भी कभी घण्टे दो घण्टे के लिए। क्योंकि आप सचित्त जल ग्रहण करते हैं और वह कदम-कदम पर मिल सकता है। - पर साधु के लिए अचित्त अथवा प्रासुक जल की प्राप्ति होना कठिन होता है । और जब वे एक शहर से दूसरे शहर और एक गांव से दूसरे गाँव जाते हैं तब तो उनके लिये निर्दोष जल की प्राप्ति कठिनाई से भी बढ़कर मरणांतक कष्ट का कारण बन जाती है। किन्तु उस अवस्था में भी वे कभी सचित्त जल ग्रहण नहीं करते । पूर्ण समभाव रखते हुए परिषह को सहन करते हैं। दूसरे शब्दों में शरीर
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