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समझ सयाने भाई !
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो !
संवर आत्म-कल्याण का मार्ग है। संवर शब्द का अर्थ होता है 'रोकना ' । संस्कृत में भी कहा गया है - 'संव्रियते इति संवरः ।' कर्मों को आने से रोकना संवर कहलाता है । इसके लिये मन और इन्द्रियों को इनके विषयों की ओर प्रवृत्त होने से रोकना चाहिये ।
संवर तत्व के सत्तावन भेदों में प्रथम पाँच भेद समितियों के और तीन गुप्तियों के हैं । इन आठों का वर्णन करने के बाद बाईस परिषहों में से प्रथम क्षुधा - परिषह का वर्णन मैंने किया था । क्षुधा - परिषह संवर का नवाँ भेद है ।
क्षुधा यानी भूख । भूख प्रत्येक व्यक्ति को लगती है चाहे वह साधु हो या श्रावक । संत तुकाराम जी ने कहा है
'पोट लागले पाठीशी, हिंडविते देशोदेशी ।'
यह पेट जो कि पीठ से लगा हुआ है, व्यक्ति को देश-विदेश में भटकाता है । आप लोग अपनी जन्मभूमि, माता-पिता और पत्नी - पुत्रादि सभी को छोड़कर दूर-दूर के देशों में जाते हैं, वह क्यों ? दो पैसे कमाकर पेट भरने के लिए ही तो । अगर पेट न होता या उसके कारण भूख का अनुभव न होता तो कोई भी व्यक्ति अथक परिश्रम नहीं करता और अपने परिवार को छोड़कर इधर-उधर नहीं भटकता ।
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• हम लोग भी यद्यपि साधु बन गये हैं और सांसारिक भूख हमें भी लगती है और इसलिये भिक्षाचरी के लिये
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भूख हमें भी लगती है
झमेलों से दूर हैं, किन्तु घर-घर में जाते हैं । यह
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