SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ समझ सयाने भाई ! धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो ! संवर आत्म-कल्याण का मार्ग है। संवर शब्द का अर्थ होता है 'रोकना ' । संस्कृत में भी कहा गया है - 'संव्रियते इति संवरः ।' कर्मों को आने से रोकना संवर कहलाता है । इसके लिये मन और इन्द्रियों को इनके विषयों की ओर प्रवृत्त होने से रोकना चाहिये । संवर तत्व के सत्तावन भेदों में प्रथम पाँच भेद समितियों के और तीन गुप्तियों के हैं । इन आठों का वर्णन करने के बाद बाईस परिषहों में से प्रथम क्षुधा - परिषह का वर्णन मैंने किया था । क्षुधा - परिषह संवर का नवाँ भेद है । क्षुधा यानी भूख । भूख प्रत्येक व्यक्ति को लगती है चाहे वह साधु हो या श्रावक । संत तुकाराम जी ने कहा है 'पोट लागले पाठीशी, हिंडविते देशोदेशी ।' यह पेट जो कि पीठ से लगा हुआ है, व्यक्ति को देश-विदेश में भटकाता है । आप लोग अपनी जन्मभूमि, माता-पिता और पत्नी - पुत्रादि सभी को छोड़कर दूर-दूर के देशों में जाते हैं, वह क्यों ? दो पैसे कमाकर पेट भरने के लिए ही तो । अगर पेट न होता या उसके कारण भूख का अनुभव न होता तो कोई भी व्यक्ति अथक परिश्रम नहीं करता और अपने परिवार को छोड़कर इधर-उधर नहीं भटकता । Jain Education International • हम लोग भी यद्यपि साधु बन गये हैं और सांसारिक भूख हमें भी लगती है और इसलिये भिक्षाचरी के लिये १५५ भूख हमें भी लगती है झमेलों से दूर हैं, किन्तु घर-घर में जाते हैं । यह For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy