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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
इसीलिए मैं कहता हूं कि तुम सब भी आपस में मिल-जुल कर रहना सीखो । अगर तुम सब में एकता रहेगी तो प्रबल दुश्मन भी तुम्हारा बाल बांका नहीं कर सकेगा । अन्यथा कोई साधारण व्यक्ति भी तुम्हारी इज्जत को, गौरव को तथा अभिमान को धूल में मिला देगा ।"
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बन्धुओ ! हमें भी इस सुन्दर कथा से शिक्षा ग्रहण करनी है । आज के इस विषम युग में अगर हम जैनधर्म के अनुयायी भी आपस में संगठित होकर नहीं रहेंगे तो अन्य धर्मावलम्बी हमारे धर्म पर आक्षेप करेंगे और इसे हीन साबित करने में नहीं चूकेंगे । हमारे धर्म और समाज रूपी भवन को दृढ़ रखने के लिये हमें उसकी नींव मजबूत बनानी होगी। आप देखते ही हैं कि व्यक्ति एक साधारण सा मकान भी अगर बनाता है तो पहले उसकी नींव को पक्की करता है । यद्यपि वहाँ कोई रहता नहीं है, किन्तु मकान को स्थिर रखने के लिये उसका पक्का होना अनिवार्य है । इसी प्रकार हमारे जैनधर्म या स्याद्वादधर्म का भवन जो कि सभी धर्मों को अपने में स्थान देता आया है, और जिसका लोहा सारा विश्व मानता है उसे हमें उसी प्रकार दृढ़ रखना है और उसे दृढ़ रखने के लिये एकता रूपी नींव को खोखली नहीं होने देना है ।
हम लोग तो आपको उपदेश देतें हैं और प्रेरणा प्रदान करते हैं । किन्तु कार्य तो आपको ही करना होगा । श्रावकों के बिना सन्त क्या कर सकते हैं ? कुल्हाड़ी में शक्ति बहुत होती है पर जब तक उसमें डंडा नहीं लगा होता, वह अपना कार्य नहीं कर पाती । इसी प्रकार संतों की वाणी में प्रबल शक्ति होती है किन्तु वह तभी काम में आती है जब श्रावकों का सहयोग होता है। दोनों पूरी एकता से काम करें, तभी समाज और धर्म की उन्नति हो सकती है। अगर श्रावक समुचित सहयोग न दें तो सन्त का कोई भी सुझाव कार्यरूप में परिणत नहीं हो सकता ।
अभी आपने फिजूलखर्ची के विषय में भी बहुत कुछ कहा है । आपका कहना यथार्थ है पर इस पर रोक भी आप लोगों को सम्मिलित होकर लगानी पड़ेगी । एकता का एक सुन्दर उदाहरण आपको बताता हूँ । प्रतापगढ़ में दिगम्बर समाज के चार सौ घर हैं । पर वहाँ के लोगों में बड़ी भारी एकता है । यहाँ तक कि वे फिजूलखर्ची न हो इसलिये वे एक ही वक्त में ब्याह-शादियाँ करते हैं । कभी-कभी तो पचास-पचास दूल्हे एक ही बैंड-बाजे के साथ जाते हैं, जिनके साथ उतनी ही दुल्हिनें भी होती हैं । इस रिवाज का कारण संभवतः आप नहीं समझे होंगे। बात यह है कि समाज - में सभी व्यक्ति अमीर नहीं होते और जो अमीर नहीं होते उनके लिये अधिक खर्च करना अपने पेट पर लात मारने के समान होता है । इसलिये धनी व्यक्ति बाजे वगैरह में
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