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________________ ૪૬ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग मर्यादा को भंग न करते हुए जो कुछ कहना चाहिये उसे कहने में हम पीछे नहीं रहते और न ही पहले कभी रहे हैं । दिल केवल उसी बात को कबूल नहीं करता है, जिसके कारण किसी भी प्रकार से हमारी मर्यादा टूटती हो । 1 उदाहरण स्वरूप किसी ने कहा- - " आप लाउडस्पीकर में क्यों नहीं बोलते ?” अब इसका क्या उत्तर ? यही कि, इससे हमारी परम्परा में बाधा आती है । वैसे जहाँ पच्चीस या सौ व्यक्ति हों, वहाँ भी लाउडस्पीकर में बोलने वाले हैं, किन्तु हमने अगर उसका उपयोग किया तो हम पराधीन हो जाएँगे । जिस प्रकार कोई गवैया सदा तबले और हारमोनियम के साथ ही गाता है और ऐसी आदत होने पर फिर "कभी उनके न होने पर गाने में कठिनाई का अनुभव करता है । संत सब एक साथ नहीं रहते, अलग-अलग विचरण करते हैं और उनकी धारणाएँ भी अलग-अलग हैं आज अगर मैं लाउडस्पीकर का प्रयोग करूँगा तो पंखे की आदत भी शुरू हो जाएगी। गोचरी के लिए जाने पर कहीं पंखा चालू हुआ तो वहाँ भी कुछ थम जाएँगे । इसलिये मेरा कहना यह है कि अगर चली आ रही परम्परा में सामूहिक रूप से कोई परिवर्तन आता है तो उससे किसी एक पर आक्षेप नहीं आता। आप सब मिलकर चाहें तो प्रयत्न करें। अकेला एक संत क्या कर सकता है ? पुस्तकों के प्रकाशन के बारे में भी अभी कहा गया है, किन्तु यह तो सभी करते हैं अतः किसका निषेध करेंगे ? हाँ, कोई नई चीज प्रारम्भ करने के विषय में मैं मौन रहता हूं और टाल देता हूं । आप लोग चाहें तो कर सकते हैं । आपको कुछ काम करना है तो अकेले भी प्रारम्भ कर सकते हैं और धीरे-धीरे औरों को साथ लेकर उसे ठीक ढंग से निर्णय की ओर ले जा सकते हैं । उसमें मेरा निषेध नहीं है । आप लोग श्रीमन्त हैं अतः अन्य साधारण व्यक्तियों पर सहज ही प्रभाव डाल सकते हैं इसलिए सर्व प्रथम आपको शिक्षण देने के लिए तैयार होना चाहिए । हमें उपदेश देने में समय नहीं लगेगा, समय तो आपको कार्य करने में लगेगा । प्रसन्नता और संतोष की बात है कि महाराष्ट्र में श्रावकों का संगठन हो सके, इसके लिये पूना और चिचवड़ में कमेटियाँ बनी हैं और उनकी मीटिंगें हुई हैं। वे कमेटियाँ सगठन करना चाहती हैं अतः आप भी इसके लिये तैयार रहें । यह कार्य एक व्यक्ति का नहीं है, समाज का है और समाज मिलकर ही कर सकेगा । किन्तु उसके लिये आप सभी व्यक्तिगत रूप से सहयोग देने की भावना रखेंगे तभी सफलता मिल सकेगी । अभी-अभी आपने जिन बातों के कार्य रूप में परिणत होने की इच्छा व्यक्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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