________________
आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
श्री कृष्ण ने अपनी रानियों को समझाया - " बात यह है कि उस व्यक्ति के प्रभाव से गंगाजी रास्ता देती हैं जो सदा अपनी आत्मा में रमण करता हो, यानी अपनी आत्मा के निकट रहता हो। मैं सचमुच ही ब्रह्मचारी हूं क्योंकि 'ब्रह्म' का अर्थ आत्मा और 'चर्य' का अर्थ रमण करना होता है । इसी प्रकार 'उप' का अर्थ निकट और 'वास' का मतलब निवास करना होता है । इस प्रकार हम दोनों ही आत्मा में रमण करते हैं और आत्मा के निकट रहते हैं । यही कारण है कि गंगा मैया ने हमारी प्रार्थना पर तुम लोगों को मार्ग दे दिया था ।"
१४६
बन्धुओ ! आप भी समझ गए होंगे कि उपवास का अर्थ क्या होता है, और व्यावहारिक दृष्टि से जो उपवास किया जाता है वह किसलिये किया जाता है ? यद्यपि हम एक दिन भूखे रहने को उपवास की संज्ञा देते हैं किन्तु उसका सच्चा आशय आत्मा में रमण करना होता है । संत मुनिराज ऐसे ही उपवास करते हैं और इसीलिये उन्हें आहार मिले या न मिले, कोई अन्तर महसूस नहीं होता । आत्मिक आनन्द की अनुभूति कुछ ऐसी ही होती है, जिसके कारण भूख-प्यास बादि कोई भी परिषह अपना दुखदायी प्रभाव साधक के मन पर नहीं डाल पाता । उसकी आत्मिक शक्ति मरणांतक परिषह को भी परिषह नहीं समझती अपितु निर्जरा का साधन मानती है ।
हमें भी ऐसी प्रबल शक्ति को प्राप्त करना चाहिये ताकि संवर-मार्ग पर हम सुगमता से बढ़ सकें तथा अपना इहलोक और परलोक सुधार सकें ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org