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भोजन किया न किया"! अपार हर्ष से भरकर सहज ही गंगा के उस पार पहुंच गईं और दुर्वासा ऋषि के दर्शनार्थ जा पहुंची।
रानियों का काफिला काफी समय तक वहाँ रुका। सबने वहीं पर भोजन किया और महारानियों की तीव्र भक्ति एवं अत्यन्त आग्रह करने के कारण दुर्वासा ऋषि ने भी उनका लाया हुआ भोजन ग्रहण किया ।
इस सब के बाद पुनः लौटने की तैयारी हुई, पर रानियाँ फिर चिन्ता में पड़ गई कि एक बार तो गंगा नदी ने शायद कृपा करके ही रास्ता दे दिया होगा पर अगर अब वह मार्ग नहीं देगी तो फिर किस प्रकार हम घर पहुंचेगी ? अपनी उस समस्या को उन लोगों ने इस बार ऋषिराज के समक्ष रखा। - ....: रानियों की बात सुनकर दुर्वासा ऋषि मुस्कराये और बोले- 'तुम लोग तनिक भी फिक्र मत करो। जब गंगा नदी आ जाये तो उससे कह देना-"अगर दुर्वासा सदा उपवास करते हों तो वह हमें मार्ग दे दे।"
ऋषि की बात सुनकर सभी रानियाँ फिर भौंचक्की रह गई। आज उनके लिये आश्चर्य पर आश्चर्य था। वे सोचने लगीं- "अभी-अभी तो ऋषि ने हमारे निमन्त्रण और आग्रह पर भोजन किया है और गंगा मैया से कहलवा रहे हैं कि दुर्वासा प्रतिदिन उपवास करते हों तो वह हमें मार्ग देवें।" । ऐसा विचार आने से रानियों को भरोसा तो नहीं हुआ कि गंगाजी उन्हें मार्ग देगी, किन्तु यह शंका ऋषि के समक्ष रखी भी कैसे जा सकती थी ? वे दुर्वासा ऋषि थे, पलक झपकते ही आगबबूला होकर श्राप दे देते तो फिर क्या होता ? चुपचाप रानियां वहाँ से रवाना हो गई और गंगा के तट पर पहुंचीं। बड़ी व्यग्रता से उन्होंने पुनः गंगा से निवेदन किया_. “गंगा माता ! अगर दुर्वासा ऋषि प्रतिदिन उपवास करते हों तो आप हमें उस पार पहुँचने के लिए मार्ग दीजिये।"
इन शब्दों का उच्चारण होना ही था कि गंगा नदी पुनः दो हिस्सों में विभाजित हो गई और बीच में सुन्दर रास्ता बन गया। श्री कृष्ण की समस्त रानियाँ अपने दल सहित आनन्द पूर्वक गंगा के इस पार आ गई और समय पर राजमहल में पहुंच गई। पर आज की अद्भुत बातों को वे पचा नहीं सकी और कृष्ण महाराज के महल में आते ही उनसे प्रश्न कर बैठीं---
"महाराज ! कृपया हमें बताइये कि आप स्त्री-सुख भोगते हुए भी ब्रह्मचारी कैसे हैं, और दुर्वासा ऋषि भोजन करने पर भी उपवास किस प्रकार किया करते हैं ? जिनके प्रभाव से गंगाजी भी रास्ता दे देती हैं।"
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