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________________ १४४ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग इस प्रकार साधु आहार ग्रहण करके और न करके भी वैसे ही प्रसन्न, शांत और सुखी रहते हैं। उनकी आत्मा दोनों अवस्थाओं में एक समान रहती है। वे खाकर भी उपवास करते हैं और न खाकर भी। आप सुनकर चकित होंगे कि यह कैसी बात है ? क्या खा लेने पर भी उपवास होता है ? हां, खा लेने पर भी व्यक्ति उपवास कर सकता है। पर इसे समझने के लिए हमें पहले यह जानना होगा कि उपवास किसे कहते है। उपवास का अर्थ हैआत्मा के समीप रहना। जो व्यक्ति आत्म-रमण करता है। चिंतन और मनन की गहराई में उतरता है वह अपनी आत्मा के निकट अधिक से अधिक रहता है । इस विषय को एक सुन्दर उदाहरण से समझा जा सकता है। गंगाजी ने मार्ग कैसे दिया ? कहा जाता है कि एक बार द्वारिका नगरी के बाहर दुर्वासा ऋषि आए। प्राचीन काल में संत-मुनिराज नगरों के बाहर ही प्रायः ठहरा करते थे। दुर्वासा ऋषि भी नगर के बाहर ठहर गये । जब नगरी में उनके आने का समाचार आया तो महाराज कृष्ण की रानियों ने उनके दर्शन करने का विचार किया और कृष्ण से इस बात की आज्ञा मांगी। कृष्ण ने सहर्ष रानियों के लिये दुर्वासा ऋषि के दर्शनार्थ जाने का सम्पूर्ण प्रबन्ध कर दिया । किन्तु मार्ग में गंगा नदी आती थी अतः रानियों ने शंका व्यक्त कि- "हम गंगा नदी को कैसे पार करेंगी ?" रानियों की बात सुनकर कृष्ण बोले "वाह ! यह कौन सी बड़ी बात है ? तुम लोग गंगा नदी से कह देना कि अगर कृष्ण ब्रह्मचारी हों तो वह मार्ग दे देवे ।' रानियाँ यह सुनकर सोचने लगीं "अब तो हो चुके ऋषिराज के दर्शन । महाराज कैसे ब्रह्मचारी हैं यह तो हम लोग जानती ही हैं। पर खैर""चलने में क्या हर्ज है ? गंगाजी को पार नहीं कर सकेंगी तो घूम-घाम कर लौट आएंगी।" यह विचार कर वे सब रवाना हो गई। जब उनकी पालकियाँ और रथ आदि गंगा के तट पर पहुंच गये तो कौतुकवश एक रानी ने हाथ जोड़कर कहा- ''गंगा मैया, अगर हमारे पति ब्रह्मचारी हैं तो आप हमें मार्ग दे दीजिये !" .... इन शब्दों का उच्चारण करने के साथ ही साथ रानियों ने दंग होकर देखा कि वास्तव में ही गंगा नदी दो हिस्सों में बँट गई है। फिर क्या था, सारी रानियाँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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