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भोजन किया न किया..! करने के लिए जो कुछ कहा है, वह मैं आपके सामने कहूँगा और आप मेरी बात क्रमशः सुनें।
कहते हैं-सन्त-मुनिराज एवं तपस्वी अपने शरीर को रखने के लिये भिक्षार्थ जावें किन्तु वे किसी वस्तु का छेदन-भेदन न करें और न किसी से करावें । न वे स्वयं पका और न ही किसी से पकवाएँ। अपितु श्रावक के घर में सहज भाव से मिला हुआ अचित्त और निर्दोष आहार लावें।
वस्तुतः सधे संत जहाँ तक बनता है, कर्मों की निर्जरा करने के लिए एकाशन, उपवास, आयंबिल आदि तप करते हैं। उन्हें भोज्य-पदार्थों में तनिक भी आसक्ति नहीं होती। जो कुछ भी रूखा-सूखा तथा निर्दोष आहार मिल जाता है उसे केवल शरीर कायम रखने के लिये ग्रहण करते हैं। क्योंकि बिलकुल ही आहार या ओंगन न देने पर यह शरीर रूपी गाड़ी नहीं चलती और इसके न चलने पर ज्ञान, ध्यान, जप एवं तप आदि कुछ नहीं हो पाता।
यह तो हुई भिक्षा ग्रहण करने की बात । पर भिक्षा लाते समय भी साधु के समक्ष अनेक कठिनाइयां आ उपस्थित होती हैं । अनेक बार तो गृहस्थ भिक्षा दें चाहे नहीं, पर गालियां तो दे ही देते हैं । उनके द्वारा कहे गए अपशब्दों को भी साधु पूर्ण धैर्य और समता के साथ सहन करता है। अपशब्दों और कटु-वचनों का सुनना भी 'आक्रोश परिषह' में आता है । जिसके विषय में समयानुसार कहा जाएगा।
तो, साधु भी आहार ग्रहण करता है किन्तु गृहस्थों के समान नहीं कि चाहे जैसा और चाहे जब खा लिया। वह भिक्षा के मुख्य ब्यालीस दोषों को टलाकर ही निर्दोष आहार लेता है अन्यथा कुछ नहीं खाता और फिर भी पूर्ण आनन्द तथा शांति पूर्वक अपनी साधना में लग जाता है। इस प्रकार एक निर्धन व्यक्ति घर में अन्न न रहने पर भूखा रहता है और साधु अपने नियमों का पालन करने के लिए तथा सदोष आहार न लेने के कारण भूखा रहता है। दोनों में कितना अन्तर है ? निर्धन व्यक्ति जबकि भूखा रहने के कारण अत्यन्त दुःख का अनुभव करता है, साधु उलटा शांति और आनन्द को प्राप्त करता है। क्योंकि वह जानता है
अप्पाहारस्स न ईवियाई, विसएसु संयन्तंति । नेव किलम्मइ तवसा, रसिएसुन सज्जए यावि ॥
- बृहत्कल्पभाष्य १३३१ अर्थात् जो अल्पाहारी होता है, उसकी इन्द्रियाँ विषयभोग की ओर नहीं दौड़तीं । तप का प्रसंग आने पर भी वह क्लांत नहीं होता और न ही सरस भोजन में आसक्त होता है।
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