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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
: उदाहरण से स्पष्ट होता है कि ब्राह्मण के समान ही संतोष, निश्चितता और तृष्णारहित वृत्ति जिसकी होती है वही व्यक्ति इस संसार में सुखी रहता है तथा अवसर आते ही अपने परिग्रह को तिनके की भाँति छोड़ सकता है ।
शंकराचार्य ने 'मोहमुद्गर' में लिखा है
सुरमन्दिरतरुमूलनिवासः शय्याभूतलमजिनं वस्त्रः । सर्वपरिग्रहभोगत्यागः कस्य सुखं न करोति विरागः ॥
- जो देवमंदिर या पेड़ के नीचे पड़े रहते हैं, जमीन ही जिनकी शैय्या है, मृगछाला ही जिनका वस्त्र है और सारे विषय भोग के सामान जिन्होंने त्याग दिये हैं यानी जो सम्पूर्ण कषाय और वासना से रहित हो गये हैं, ऐसे मनुष्य क्यों नहीं सुखी रहते ? यानी त्यागी सदा सुखी हैं ।
क्षुधा परिषह
बन्धुओ, प्रसंगवश मैंने अभी त्याग तथा तृष्णा आदि के विषय में बताया है, किन्तु हमारा आज का मूल विषय बाईस परिषहों में से प्रथम क्षुधा परिषह को लेकर है ।
आप जानते ही हैं और अभी मैंने भी बताया है कि दो प्रकार के व्यक्ति क्षुधा परिषह सहन करते हैं । एक तो वे जिन्हें अन्न जुटता नहीं अतः वे रोते-धोते मजबूरन उस कष्ट को भोगते हैं तथा दूसरे सच्चे सन्त- मुनिराज, जो इच्छा और त्याग की भावना से इस परिषह को जीतते हैं । उन्हें भिक्षा मिलती है तो अपनी संयम साधना का निर्वाह करने के लिए शरीर को भाड़ा दे देते है, और न मिले तो भी पूर्ण आनन्द और शांति से अपने मार्ग पर बढ़ते जाते हैं । इतना ही नहीं, भिक्षा मिल जाने से ही वे उसे ले लेते हैं, यह भी बात नहीं है । वे वही भोज्य पदार्थ ग्रहण करते हैं जो पूर्णतया निर्दोष हो ।
भगवान महावीर ने बाईस परिषहों में से प्रथम परिषह क्षुधा वेदनीय बताया है । इस विषय में 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' में कहा गया है
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परिसहाणं पविभत्ती, कासवेणं पवेइया । तं मे उदाहरिस्सामि, आनुपुव्विं सुणेह मे । दिगिछा परिगए देहे, तवस्सी भिक्खु थामवं, न छिंदे न छिदावए, न पए न पयावए ।
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- अध्ययन २, गा० १-२ कहा गया है - काश्यय गोत्रीय भगवान महावीर ने परिषहों का विभाग
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