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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
संन्यासी भी बन जाते हैं कि कम से कम साधु बन जाने पर भरपेट भोजन तो मिलता रहेगा। किसी ने कहा भी है
नारि मुई घर सम्पत्ति नासी।।
मूड़ मुड़ाय भये संन्यासी ॥ पर ऐसे संन्यासियों के साधुत्व की नींव त्याग पर आधारित नहीं होती अतः वे संन्यस्त-धर्म का पालन भी समीचीन रूप से नहीं कर सकते। सच्चा साधु या संन्यासी वही होता है जो प्राप्त ऐश्वर्य या जितनी धन-सम्पत्ति भी उसके पास होती है, उसका वह इच्छा से त्याग करता है । ऐसा त्याग ही उसकी आत्मा को कर्म-मुक्त कर सकता है। योगशास्त्र में कहा गया है--
__ "स्वयं त्यक्ता ह्य ते शमसुखमनन्तं विदधति ।'
- इन सांसारिक भोगों का अपनी इच्छा-पूर्वक परित्याग कर देने से अनन्त सुख रूप मोक्ष की प्राप्ति होती है।
यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि अधिक धन-सम्पत्ति या अथाह वैभव का त्याग करना ही अधिक महत्वपूर्ण नहीं कहलाता है, अपितु थोड़ा धन या चार बरतन भी जिसके पास हों और वह व्यक्ति पूर्ण रूप से उन्हें त्याग करने की भावना से छोड़ता है तो वह त्याग भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है जितना अधिकाधिक वैभव का त्याग करना। तात्पर्य यह कि त्याग की भावना का महत्व अधिक होता है. त्यागी जाने वाली सम्पत्ति की मात्रा का नहीं। त्याग तृष्णा का कहलाता है और उसका त्याग करने वाला ही त्यागी साबित होता है। एक छोटा सा उदाहरण हैबाईसवीं पीढ़ी क्या खाएगी?
एक सेठजी अपनी दुकान पर बैठे थे। दीपावली का समय था अतः मुनीम के द्वारा किये हुए हिसाब-किताब के बही-खाते उनके समक्ष खुले हुए रखे थे। सेठजी ने बहीखातों को देखा तो उन्हें महसूस हुआ कि मेरे पास इतना धन तो है कि मेरी इक्कीस पीढ़ियां भी कुछ कार्य न करें तो बैठे-बैठे खा सकती हैं ।
पर साथ ही उन्हें यह भी विचार आया कि मेरा यह धन इक्कीस पीढ़ियों तक के लिये तो पर्याप्त है किन्तु बाईसवीं पीढ़ो फिर क्या खायेगी ? यह विचार आते ही सेठजी को चिन्ता सवार हो गई और उनका चेहरा उतर गया।
ऐसी ही मनःस्थिति में वे घर पहुंचे। घर पर सेठानी पति की प्रतीक्षा कर रही थी कि सेठजी आएं तो भोजन करें। किन्तु जब सेठजी घर आए और सेठानी
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