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भोजन किया न किया...!
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हो सकेगी । अतः प्रत्येक विषम परिस्थिति में मनुष्य को समभाव रखने का प्रयत्न करना चाहिए और जो भी संकट या कष्ट आएं उन्हें शांति के साथ सहना चाहिए।
अभी मैंने आपको बताया है कि संयम की साधना के मार्ग में मुख्य बाईस परिषह समय-अससय आते हैं जो कि भूख, प्यास, शीत, ताप आदि-हैं । क्रमानुसार इनका विवेचन किया जाएगा । आज तो हम प्रथम परिषह भूख अर्थात् क्षुधा को ले
संसार का प्रत्येक प्राणी क्षुधा परिषह से परिचित है। किन्तु इससे विशेष परिचित वे अभावग्रस्त व्यक्ति हैं जिन्हें कठिन परिश्रम करने पर भी भरपेट अन्न कभी नहीं मिलता और नित्य ही आधा पेट खाकर रहना पड़ता है। आप अमीरों को तो क्ष धा-परिषह का कष्ट भोगना नहीं पड़ता क्योंकि आपका तो पहले का खाया हुआ ही पच नहीं पाता कि आप और खा लेते हैं तथा दिन या रात जिस समय भी इच्छा होती है उत्तमोत्तम खाद्य पदार्थ उदरस्थ करते रहते हैं ।
तो प्रथम तो निर्धन व्यक्ति क्षधा परिषह सहन करते हैं और दूसरे संत-मुनिराज । अब हमें यह देखना है कि दोनों के सहन करने में क्या अन्तर होता है तथा किसके कर्मों की निर्जरा होती है ? . इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि एक निर्धन व्यक्ति जिसे भरपेट अन्न जुट ही नहीं पाता उसे प्रथम तो मजबूर होकर भूख का कष्ट सहन करना पड़ता है, दूसरे वह उस कष्ट को रोते-झींकते और हाय-हाय करते हुए सहन करता है। भोजन के अभाव में वह आर्तध्यान करता है और उठते-बैठते भगवान को कोसा करता है। ऐसी स्थिति में क्या उसके कर्मों की निर्जरा होती है ? नहीं, जो वस्तु प्राप्त ही नहीं होती उसके लिये त्याग का प्रश्न कहां आता है ? दूसरे वह अप्राप्य वस्तु के अभाव को शांति और सम-भाव से भी तो स्वीकार नहीं करता। अतः भोजन के अभाव में उस भूख को सहने का कष्ट परिषह को सहना या जीतना नहीं कहलाता।
इसके अलावा कभी-कभी भोज्य-पदार्थों के अभाव में अत्यन्त दुखी और क्रोधित व्यक्ति मौका पाते ही चोरी करने लगता है, डाकू बन जाता है तथा अनेक बार तो किसी की हत्या करके भी अपनी उदरपूर्ति का उपाय करता है। इसलिये ऐसे व्यक्तियों का भूखा रहना परिषह को सहना नहीं कहलाता और न ही उससे आत्मा को कोई लाभ ही होता है। कभी-कभी तो ऐसे व्यक्ति जिनको न खाने को पूरा मिलता है और न ही उनके घर द्वार या सम्पत्ति होती है, वे यह सोचकर
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