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________________ १३८ आनन्द प्रवचन | पाचवां भाग आये हैं । पर आपके अतिथि सत्कार में क्या रहस्य है कि आपने हम दोनों को पिछली बार जिन स्थानों पर ठहराया था, इस बार उन्हें बदल दिया ?" सेठजी व्यापारियों के प्रश्न पर मुस्कराये और बोले - "भाई मैं जानता हूँ कि आप वही दोनों व्यक्ति हैं जो पहले भी मेरे यहाँ आकर ठहरे थे । पर मैंने इस बार जानबूझकर आप दोनों के स्थान बदले हैं । इसका कारण यह है कि आप दोनों की भावनाओं में पहले और अभी में बड़ा अन्तर है ।" सेठ की बात सुनकर व्यापारी और भी चकराये पर बोले कुछ नहीं, क्योंकि उन्हें कुछ सूझ ही नहीं रहा था । अतः सेठजी ने स्वयं ही उनकी जिज्ञासा को शांत करने के लिये बताना शुरू किया - "देखो बन्धु ! आप दोनों ही व्यापारी हैं और मेरे लिये समान रूप से आदरणीय हैं । किन्तु आप लोगों के दोनों बार आने में स्वयं आपकी भावनाओं में बड़ा अन्तर था । और वह इस प्रकार कि आप में से जो घी खरीदना चाहता था वह चाहता था कि घी सस्ता मिले और जो चमड़ा खरीदना चाहता था वह सोचता था कि चमड़ा सस्ता मिले । किन्तु घी तभी सस्ता होता जबकि देश में खुशहाली होती और चमड़ा तब सस्ता होता जबकि पशु अधिक मरते ।" " तो उस समय घी खरीदने वाले की भावना उत्तम थी और चमड़ा खरीदने वाले की निकृष्ट । इसीलिए मैंने भावना को महत्व देते हुए घी खरीदने वाले को अन्दर ठहराया था और चमड़ा खरीदने वाले को बाहर । किन्तु इस बार आप दोनों की भावनाएं बदली हुई हैं क्योंकि आप में से एक घी बेचना चाहता है और एक चमड़ा । पर घी बेचने वाला घी महँगा बेचना चाहता है और सोचता है कि देश में घी-दूध की कमी हो जाय तो मेरा घी महँगा बिक सके। इस हीन भावना के कारण मैंने इस बार घी बेचने वाले को बाहर ठहराया और चमड़ा बेचने वाले को अन्दर क्योंकि वह चमड़ा महँगा बेचना चाहता है अतः सोचता है कि पशु बहुत कम मरें तो चमड़ा कम निकले और मेरा चमड़ा महँगा बिक सके । " सेठ की बात सुनकर तथा उनके हृदय में भावनाओं की ऐसी परख देखकर दोनों व्यापारी अत्यन्त शर्मिन्दा हुए और अपनी भावनाओं के लिये पश्चात्ताप करते हुए वहाँ से रवाना हो गये । कहने का अभिप्राय यही है कि मनुष्य को कर्मों की निर्जरा करने के लिये संवर धर्म का आराधन करना चाहिये और उसके लिए सर्वप्रथम उसे अपनी भावनाओं में सरलता, शुद्धता एवं समता लाना चाहिये । जब तक व्यक्ति की भावनाओं में क्रोध, मोह, लोभ एवं तृष्णा का स्थान रहेगा, तब तक उसकी आत्मा निर्मल नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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