SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भोजन किया न किया..! १३७ गज सुकुमाल मुनि के मस्तक पर उनके ससुर सोमिल ब्राह्मण ने खैर के जलते हुए अंगारे रख दिये थे लेकिन उनके अन्तर्मानस में समभाव की इतनी शीतल धारा प्रवाहित थी कि मरणांतक कष्ट पहुंचाने वाले उस व्यक्ति के प्रति भी उनके मन में क्रोध या द्वेष की अग्नि प्रज्वलित नहीं हुई। यह उनकी दृढ़ समता की भावना से ही संभव हुआ। ऐसे-ऐसे उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि भावना में कितनी शक्ति होती है और उसका कितना महत्व माना जाता है । एक छोटा सा उदाहरण हैअद्भुत अतिथिसत्कार एक बार एक घी का व्यापारी और चमड़े का व्यापारी दोनों साथ-साथ अपनी इच्छित वस्तुएं खरीदने के लिए अपने नगर से रवाना हुए। . . चलते-चलते एक शहर आया और वे एक सेठ के यहाँ रात्रि व्यतीत करने के लिये ठहरे । सेठ ने उन्हें खुशी से अपने यहां ठहराया किन्तु घी खरीदने वाले व्यापारी को अपनी हवेली के अन्दर स्थान दिया और चमड़ा खरीदने वाले को बाहर । चमड़े के खरीददार को यह बहुत बुरा लगा किन्तु वह करता क्या? रात बितानी थी अतः मन मारकर हवेली के बाहर बरामदे में ही सो गया। उधर घी का व्यापारी हवेली के अन्दर ठहराया जाने के कारण बड़ा प्रसन्न हुआ और ठाठ से सो गया । प्रातःकाल होते ही दोनों पुनः रवाना हो गये। सेठ से दोनों ने ही कुछ नहीं पूछा । कुछ दिन पश्चात् दोनों अपनी-अपनी वस्तुएं खरीदकर अपने नगर में पहुँच गये। संयोगवश कुछ महीनों के पश्चात् वे घी और चमड़े के व्यापारी फिर साथ-साथ अपनी-अपनी चीजें बेचने के लिए निकले । मार्ग में फिर उसी शहर के पास रात्रि हो गई जहाँ वे पहले ठहरे थे। अतः वे इस बार भी उसी सेठ के यहां पहुंचे और रात्रिविश्राम के लिए इच्छा व्यक्त की। सेठजी बड़े भले थे और अतिथियों के सत्कार की भावना रखते थे। उन्होंने सहर्ष दोनों को ठहरने के लिये स्वीकृति दे दी। किन्तु आश्चर्य की बात यह हुई कि इस बार उन्होंने चमड़े के व्यापारी को अन्दर हवेली में ठहराया तथा घी के व्यापारी को बाहर ! दोनों ही सेठजी के इस व्यवहार को देखकर दंग रह गये और प्रातःकाल इसका कारण पूछे बिना न रह सके । प्रभात होते ही व्यापारियों ने पूछ लिया. "सेठ साहब ! हम वही तो दोनों व्यक्ति हैं जो आपके यहाँ पहले और अब Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy