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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
की तलवार से ?
रहने के
लिए ।
"" कोन बच सकता है यहाँ, इस काल क्यों न पकड़ सत्य मारग सुख से रूपी जल को ले मैं द्वेष अग्नि दूँ लोभ, मोह अरु क्रोध आदि सब को हरने के लिये ।
ज्ञान
बुझा,
कवि का कथन है कि काल रूपी इस तलवार से न तो आज तक कोई बचा है और न भविष्य में भी बचेगा। फिर मैं परलोक में शाश्वत सुख को प्राप्त करने के लिए सत्य एवं संवर का मार्ग क्यों न अपनाऊ ?
सन्त- मुनिराज अपने मन में यही भावना रखते हैं कि जब मुझे शाश्वत सुख की प्राप्ति करना ही है तो फिर परिषहों से घबराना कैसा ? कर्मों के भुगतान को अगर रोते-रोते चुकाया तो क्या लाभ होगा ? जब भोगना ही है तो हँसकर भोगना चाहिये । पूज्यपाद श्री तिलोकऋषिजी महाराज अपनी कविता में फरमाते हैं कि
लेनदार मांगन को आया,
तैयारी रख देवन की ।
लेनदार तो अपना धन वसूल करेगा ही, छोड़ेगा तो नहीं, चाहे रो-रोकर दें या कर्मों के भुगतान का भी यही हाल है। वे समदृष्टि जीव भी नरक में जाते हैं क्योंकि में बंधे हुए कर्म तो भोगने ही पड़ते हैं ।
हँसकर । तब फिर रोने से क्या फायदा । तीर्थंकर, चक्रवर्ती को भी नहीं छोड़ते । समदृष्टि तो वे बाद में बनते हैं लेकिन पूर्व
राजा श्रेणिक जो कि आगामी चौबीसी में तीर्थंकर बनने वाले हैं, इस समय नर्क की क्षेत्र - वेदना को भोग रहे हैं क्योंकि तीर्थंकर गोत्र बाँधने से पहिले ही उनके निविड़ कर्म बँधे हुए थे ।
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तो मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि कर्मों का भुगतान तो अवश्य ही करना पड़ता है और वे ही परिषह के रूप में सामने आते हैं । किन्तु अगर उन्हें सम-भाव से सहन कर लिया जाय तो कर्मों की निर्जरा हो जाती है और विषम भाव हृदय में र जहाँ पूर्व कर्म ही नहीं झड़ पाते, वहाँ नवीन कर्मों का बन्धन हो जाता है । कवि ने आगे कहा है- 'कितना अच्छा हो कि मैं सम्यक् ज्ञान रूपी जल से संसार के अन्य प्राणियों के प्रति रही हुई अपनी द्वेषाग्नि को बुझा दूँ । क्योंकि जब मुझ में ईर्ष्या-द्वेष नहीं रहेगा तो क्रोध, लोभ एवं मोह आदि भी मेरा पीछा छोड़ देंगे ।' लेकिन यह तभी तो हो सकेगा जबकि ज्ञान एवं समता रूपी शीतल जल अन्तः करण में हिलोरें लेगा ।
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