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________________ ५४ भोजन किया न किया....! धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! । भगवान ने संवर तत्त्व के सत्तावन भेद बताए हैं। उनमें से प्रथम आठ भेद जिनमें पांच समिति और तीन गुप्ति हैं, इनका वर्णन अब तक किया जा चुका है। अब अगले भेदों में बाईस परिषह बताए जाएंगे। परिषह किसे कहते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में विषय इस प्रकार समझा जा सकता है कि धर्मरक्षा के लिए, निवृत्ति मार्ग पर सुदृढ़ रहने के लिए तथा आत्मकर्मों की निर्जरा के लिए जब साधक संयम मार्ग पर बढ़ता है तब उसके मार्ग में नाना प्रकार की बाधाएं और कष्ट आते हैं, उन्हें ही परिषहों की संज्ञा दी जाती है। श्री तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय में लिखा गया है मार्गाच्यवननिर्जराथं परिषोढव्याः परीषहाः । . धर्म के मार्ग से च्युत न होने के लिए और निर्जरा के लिए जो कष्ट सहन किये जाते हैं वे ही परिषह कहलाते हैं । शास्त्रकारों ने बाईस परिषह बताये हैं । हम संतों के लिए तो परिषह सिर्फ बाईस हैं किन्तु आप लोगों के तो बाईस पर दो बिन्दियां और लगा दी जाये तब भी शायद कम पड़ेंगी। परिषहों को समता पूर्वक सहन करने से कर्मों की निर्जरा होती है पर अगर मन चचल हो गया और उन्हें सहते समय दुःख और खेद का अनुभव किया या हायहाय करने लग गये तो कर्मों की निर्जरा नहीं होगी। इसलिये महापुरुष कहते हैं कि अगर कर्म क्षय करने हैं जो पूर्ण सम-भाव रखो तथा उस समय इस जीवन को अल्प तथा शरीर को नाशवान मानकर इन पर से ममता छोड़ दो। कष्ट सहन करते समय ऐसी भावना होनी चाहिए कि १३५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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