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आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग
वाली दुर्गन्ध से नाक-भौंह सिकोड़ता है, इतना ही नहीं वह तब तक चैन नहीं लेता, जब तक कि उसे श्मशान में ले जाकर शीघ्रातिशीघ्र भस्मीभूत न कर दे या पृथ्वी में बहुत गहरे न दबा दे । । शरीर के इस अन्त को प्रत्येक व्यक्ति देखता है और समझता है कि मृत्यु के पश्चात् इसका कोई लाभ नहीं, कोई इसे देखकर प्रसन्न होने वाला नहीं और न ही इसके सौन्दर्य और परिपुष्टता पर रीझने वाला ही है। फिर भी वह नहीं चेतता। अर्थात् केवल शरीर का जतन ही जीवन भर करता है,आत्मा का भला नहीं सोचता। आत्मा का भला अगर व्यक्ति सोच ले तो वह इसी शरीर के द्वारा अनन्त कर्मों का क्षय कर सकता है।
___ आत्म-उत्थान का साधन भी यह शरीर है और आत्म-पतन का भी। जिस प्रकार तीक्ष्ण औजारों से ऑपरेशन आदि करके डॉक्टर मरीज की जीवनावधि बढ़ा देते हैं, उन्हीं औजारों से क्षण भर में ही जीवन-डोरी काटी भी जा सकती है । दूसरा उदाहरण अग्नि का भी लिया जा सकता है कि जिस आग से बनाया हुआ भोजन शरीर को जीवन प्रदान करता है वही आग जीवन को नष्ट भी कर डालती है।
__ अन्त में मुझे केवल यही कहना है कि संवर के भेदों में मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति का जो महत्व बताया है उस पर दृढ़ विश्वास रखते हुए हमें अपने मन, वचन और शरीर को विषयों की ओर जाने से मोड़ना चाहिए तथा धर्माराधन की ओर प्रवृत्त करना चाहिये । शरीर की अपेक्षा आत्मा का महत्व अधिक है क्योंकि शरीर तो अल्पकाल में ही साथ छोड़ देगा किन्तु उसके कारण अगर आत्मा कर्म-बन्धनों से अधिक जकड़ गई तो न जाने कितने जन्मों तक नाना प्रकार की यातनाएँ भोगनी पड़ेंगी। अतः अपनी गुप्तियों की सहायता से हमें शरीर का मोह छोड़कर संवर-धर्म पर अग्रसर होना है।
दशवकालिक सूत्र में धर्म पर दृढ़ रहने के लिए कितना प्रेरणात्मक आदेश दिया है
___ 'चइज्ज देहं नै हु धम्मसासणं । यानी देह को (आवश्यकता पड़ने पर) भले ही छोड़ दो, किन्तु अपने धर्मशासन को मत छोड़ो।
जो भव्य पुरुष इस बात को हृदयंगम कर लेते हैं वे इस लोक में भी संतुष्ट और सुखी रहते हैं तथा परलोक में भी सुखी बनते हैं ।
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