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देहस्य सारं व्रतधारणं च
यह शरीर तो आप जानते ही हैं कि एक दिन निर्जीव होकर मिट्टी में दब जाएगा या अग्नि की भेंट चढ़ेगा। फिर इसको पुष्ट करना ही जीवन का लक्ष्य मानकर चलने से हमारा कब कल्याण होगा ? जीवन का लक्ष्य देह को पुष्ट करते रहना है या संसार से मुक्त होकर पुनः कभी भी देह धारण से निवृत्त होना ? इस शरीर की कद्र कब तक है ? जब तक इसमें आत्मा है । आत्मा के अलग होते ही यह असह्य ग्लानि और नफरत का कारण बनती है । ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार बाल मस्तक पर रहते हैं तब तक वे सुगंधित तेल से सुवासित किये जाते हैं और दिन भर में कई बार संवारे जाते हैं। किन्तु मस्तक से अलग होते ही उनकी कोई कद्र होती है ? कोई उन्हें पूछता है या उन्हें सम्हाल कर रखता है ? किसी कवि ने कहा भी है
"हा, केश आज भूपर, कैसे पड़े हुए हैं ? मस्तक से जो कतर कर नीचे गिरा दिये हैं। अब वो नहीं है खुशबू, पैरों तले दबे हैं, पुछते जो रोज थे वो, धूली पै आ पड़े हैं।
राजा रईस उनमें, नाना इतर लगाते. सुरमित उन्हें बनाकर, दिल में खुशी मनाते । पर हाय, आज केशव, निज स्थान च्युत हुए हो,
हा ! स्थान भ्रष्ट होकर अपमान पा रहे हो।" भावुक कवि जमीन पर पड़े हुए धूलि-धूसरित बालों को देखकर खेद प्रकट करता हुआ कहता है अफसोस है कि ये बाल जो कभी किसी के मस्तक की शोभा थे, आज काटकर जमीन पर फेंक दिये गये हैं।
इन्ही बालों को जब कि वे किसी राजा, रईस या अन्य व्यक्तियों के सिरों पर होंगे, नाना प्रकार के सुगन्धित तेल व इत्र से सुवासित किया जाता होगा और इन्हें भांति-भांति से संवारा जाता होगा। लोग बड़े गर्व से इन्हीं बालों पर हाथ फेरकर प्रसन्न होते होंगे।
किन्तु अपने स्थान से च्युत होकर आज ये कितने अपमानित हो रहे हैं और परों तले रौंदे जा रहे हैं।
यह तो हुई है केशों की बात । यद्यपि केशों को मस्तक से काटकर गिरा दिया गया है और वे यत्र-तत्र बिखर रहे हैं, फिर भी इनकी दशा शरीर से बेहतर है । बालों को काट कर कम से कम छोड़ तो दिया जाता है । पर शरीर से जीवात्मा के चले जाने पर तो मनुष्य उसे देखकर डरता है। अल्पकाल में ही उसमें से उठने
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