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देहस्य सारं व्रतधारण च
१३१ ___ यह विचार कर उसने उसी क्षण से शिकार खेलने का सदा के लिए त्याग कर दिया।
बन्धुओ, आप समझ ही गए होंगे कि त्याग-नियमों में कितनी शक्ति होती है ? मंत्री व्रतधारी था अतः उसने राजा को भी प्रभावित करके उसकी शारीरिक हिंसक क्रियाओं को तिलाञ्जलि दिलवा दी और शरीर के द्वारा की जाने वाली निरर्थक हिंसा पर काबू करवा दिया।
इस प्रकार मुझे यही कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों पर, मन पर और शरीर पर अंकुश रखना चाहिए तथा अपना और पर का कल्याण करने का प्रयत्न करते हुए संवर-मार्ग पर बढ़ना चाहिये । तभी भगवान के आदेश का पालन होगा तथा अपनी आत्मा भी कर्म-मुक्त हो सकेगी।
हमारा इतिहास बताता है कि अमितगति नामक एक महा विद्वान जैनाचार्य हुए हैं। आपने 'सुभाषित रत्न संदोह' नामक ग्रन्थ की रचना की है। सुभाषित का अर्थ ही सुन्दर वचन लिया जाता है पर उसमें भी रत्न के समान बहुमूल्य श्लोकों का संग्रह होने के कारण ग्रन्थ बहुत ही उत्तम और दूसरे शब्दों में अमूल्य साबित हुआ है । ग्रन्थ में अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है और उनमें पांच समिति एवं तीन गुप्ति भी हैं।
गुप्तियों के विषयों में आचार्य अमितगति का एक श्लोक इस प्रकार है'प्रवृत्त्ये स्वांतवचस्तननां, सूत्रानुसारेण निवृत्तयो वा। यास्ता जिनेन्द्राः कथयन्ति तिस्रो, गुप्तिविधूताऽखिल कर्मबन्धः ॥
स्वांत यानी मन, वच यानी वाणी और तनु याने काया। मन, वचन और तन, ये तीनों गुप्तियाँ हैं । इन तीनों की प्रवृत्तियाँ हैं जिन्हें बुद्धि एवं विवेक के द्वारा शुभ कार्यों की तरफ ले जाने से आत्म-कल्याण होता है। अभिप्राय यही है कि मन, वचन एवं शरीर की प्रवृत्ति कषायों की ओर होती है जिनसे कर्मों का निविड़ बंध होता है। किन्तु उन प्रवृत्तियों को सूत्र यानी सिद्धान्त के अनुसार निवृत्त करना यानी अशुम कार्यों की ओर प्रवृत्त होते हुए मन, वचन एवं शरीर को शुभ कर्मों की ओर ले जाना कल्याण मार्ग है और इसी को श्री जिनेश्वर भगवान ने गुप्ति कहा है ।
___ आगे कहा है जो मुमुक्षु प्राणी इन तीनों गुप्तियों को प्रवृत्ति की ओर से निवृत्ति की ओर मोड़ लेते हैं वे अखिल कर्मों के बन्धनों को तोड़ डालने में पूर्ण समर्थ बन जाते हैं।
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