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देहस्य सारं व्रतधारणं च
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आप श्रावकों के व्रत एकदेश कहलाते हैं फिर भी वे सुवर्णालंकार के समान हैं । जिस प्रकार सोने के आभूषण टूट-फूट जाएँ तो पुनः बनवाकर उन्हें नया रूप दिया जाता है, इसी प्रकार आपके व्रतों के भंग होने पर प्रायश्चित्त आदि के विधान से उन्हें पुनः नया बना लिया जाता है ।
किन्तु हम लोगों के व्रत मोतियों के आभूषणों के समान हैं । मोती का पानी उतरने पर फिर वह किसी महत्व का नहीं रह जाता, उसी प्रकार हमारे व्रतों का भंग भी साधुत्व को पूर्णतया समाप्त कर देता है । साधु बनने वाला अगर कहे कि मुझे अमुक व्रत में थोड़ी छूट और अमुक व्रत में कुछ गुंजाइश चाहिए तो वह कदापि नहीं हो सकता ।
एक बार हमारे पास एक दीक्षार्थी आया । वह बोला - "महाराज ! में संयम ग्रहण करना चाहता हूँ किन्तु शरीर के लिए बस रात को थोड़ी सी तम्बाकू खाने की सुविधा चाहिए ।" उस दीक्षार्थी को हमने उसी वक्त रवाना कर दिया । क्योंकि हमारे व्रतों में कहीं छूट नहीं है साधु चाहे जितना बीमार हो और मर भी क्यों न जाय, वह रात्रि को दवा भी नहीं लेता फिर तम्बाकू-सिगरेट जैसी नशीली वस्तु ग्रहण करने का तो सवाल ही कहाँ उठता है ?
तो मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य से जितना भी हो सके शरीरगुप्ति का ध्यान रखना चाहिये तथा प्रत्येक कार्य पूर्ण विवेक एवं यतना पूर्वक करना चाहिये । उसे संकल्पी हिंसा का तो क्या असावधानी ओर अनजानपने से होने वाली हिंसा से ही बचना चाहिये । जो व्यक्ति अपने व्रतों में दृढ़ होता है, वह अपने आपको तो पाप से बचाता ही है, कोशिश करके औरों को भी पाप - क्रियाओं से बचा लेता है । एक उदाहरण से आप यह बात भली-भाँति समझ लेंगे ।
जयपुर एक राजा के दरबार में दिगंबर धर्म को मानने वाला मंत्री था । पालन करता था । वह मंत्री अत्यन्त राजा भी उसका बड़ा सम्मान करता था
वह जैन था अतः श्रावक के व्रतों का पूर्णतया होशियार और राज- कार्य में निपुण था अतः तथा अपना हितैषी मानकर सदा अपने साथ रखा करता था ।
एक बार राजा ने शिकार के लिए जाने का निश्चय किया और मंत्री को भी साथ चलने के लिये कहा । मंत्री बड़े पशोपेश में पड़ गया । वह सोचने लगा"मैं न तो शिकार खेल सकता हूँ और न ही शिकार खेलने वाले की सहायता ही कर सकता हूँ । इसके अलावा शिकार होने वाले प्राणी को किस प्रकार अपनी आँखों के सामने तड़पते हुए देखूंगा ? मेरा तो आज्ञा को अमान्य भी कैसे करू ?"
हृदय ही फट जाएगा । किन्तु राजा की
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