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________________ १२ आनन्द प्रक्चन | पांचवां भाग में हमें कौन उद्बोधन देगा और हम उद्बोधन समझ सकने की स्थिति में होंगे भी या नहीं, यह कौन जान सकता है ? इसलिये बंधुओ, इस शरीर को सब कुछ मानकर हमें इसकी सार संभाल में ही अपना समय व्यतीत नहीं कर देना है, अपितु इसके द्वारा अधिक से अधिक आत्मकल्याण कर लेना है । इस शरीर को तो एक दिन समाप्त होना ही है । हम तो क्या चीज हैं, मरुदेवी माता, जिनका आयुष्य एक करोड़ पूर्व का था और धर्मग्रन्थों के अनुसार जिन्होंने अपनी पैंसठ हजार पीढ़ियाँ अपनी आँखों से देखीं थीं, उन्हें भी काल आकरले ही गया था। फिर आप ब हमारी आयु उनके मुकाबले क्या है ? और जितनी हम अंदाज लगाते हैं उतने में भी कदम-कदम पर क्या मृत्यु के द्वारा भय नहीं है ? मृत्यु तो न बच्चे को छोड़ती है न जवानों पर तरस खाती है और न ही वृद्धावस्था का लिहाज करती है । यानी किसी भी अवस्था में और किसी भी क्षण वह तो पलक झपकते ही जीव को ले उड़ती है। तो इस बात को भली-भांति समझकर मनुष्य को सवर का आराधन करने के लिये कायागुप्ति को ध्यान में रखते हुए शरीर को शुभ क्रियाओं में प्रवृत्त करना चाहिये । प्रश्न उठता है कि शरीर से शुभ क्रियाएं किस प्रकार की जायें ? इस विषय में कहा गया है जयं चरे जयं चिठे, जयमासे जयं सए । जयं भुञ्जन्तो भासन्तो पावकम्मं न बन्धई ॥ -दशवकालिक सूत्र, अ, ४ अर्थात्-जीव यत्नपूर्वक चले, यत्नपूर्वक खड़ा होवे, यत्नपूर्वक बैठे, यत्नपूर्वक सोवे, यत्नपूर्वक भोजन करे और यत्नपूर्वक भाषण करे तो वह पाप कर्म को नहीं बाँधता है। __ सारांश यही है कि अगर मनुष्य पूर्ण सावधानी से जीव-जन्तुओं की रक्षा करते हुए चले, बैठे, सोए तथा भोजनादि करे एवं इसी प्रकार विवेकपूर्वक किसी का मन न दुखाते हुए बोले तो उसकी आत्मा पाप कर्मों से नहीं बंधती। अतः अपनी सामर्थ्य के अनुसार व्यक्ति को व्रतादि ग्रहण करने चाहिए। ___ शास्त्रों में सभी प्रकार के विधान हैं। जो अधिक त्याग नहीं कर सकता अथवा कड़े नियमों का पालन नहीं कर सकता उसके लिए अणुव्रत बताए गये हैं और जो पूर्णतया दृढ़ है उसके लिए महाव्रत बताए हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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