________________
देहस्य सारं व्रतधारणं च
श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है
जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं जस्स वऽत्थि पलायणं । जो जाणे न मरिस्सामि सो हु कंखे सुए सिया ॥
- अ० १४-२७
अर्थात् - जिसकी मृत्यु के साथ मित्रता हो, अथवा जो उससे भागकर बच सकता हो अथवा जो यह जानता हो कि मैं कभी मरूंगा नहीं, वही कल पर भरोसा कर सकता है ।
इसीलिये भगवान का आदेश है कि जब उत्तम मानव जन्म मिल गया है और काल का आक्रमण कब हो जाय, इसका कोई भरोसा नहीं है तब फिर इस अमूल्य जीवन का एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिये । साथ ही यह ध्यान रखना चाहिये कि इस जीवन का लाभ शरीर से ही उठाया जा सकता है । सभी प्रकार की धर्म- क्रियाएँ शरीर के माध्यम से ही हो सकती हैं अतः इसे केवल सुख-सुविधा से रखने और पुष्ट करने में ही न लगे रहकर इसके द्वारा त्याग, तपस्या, दान तथा सेवा आदि शुभ क्रियाएं करके परलोक सुधारने का प्रयत्न करना चाहिये । अगर ऐसा मानव ने नहीं किया तो अन्त में पश्चात्ताप के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं आएगा । और अगले जन्म में फिर जीव किस गति में जाएगा क्या, पता । शास्त्र कहते
भी हैं
संबुझह, कि न बुज्झह ?
Jain Education International
१२७
बोही खलु पेच्च बुल्लहा । हूवणमंति राइओ,
नो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥
अर्थात् - अभी इसी जीवन में समझो, क्यों नहीं समझ रहे हो ? मरने के बाद परलोक में सम्बोधि का मिलना कठिन है ।
— सूत्रकृतांग १-२-१-१
तो आर्यक्षेत्र, आर्य
कितनी सुन्दर बात कही गई है कि इस मानव-जीवन में जाति, उच्चकुल और सबसे बढ़कर संत जनों का समागम भी हमें मिला है जो कि अपने आत्महितकारी प्रवचनों से हमें पुनः पुनः चेतावनी देते हैं तथा धर्माराधन की कल्याणकारी क्रियाओं में प्रवृत्त होने की प्रेरणा प्रदान करते हैं । पर इतने सब साधनों के प्राप्त होने पर भी, संत दर्शन तथा उनके धर्मोपदेशों को सुनने का सुयोग प्राप्त होने पर भी हमारी आत्मा नहीं जागती है तो फिर अगले जन्म में यानी परलोक
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org