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________________ ११८ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग सारांश यही है कि जिस प्रकार अन्न और जल जीवन को कायम रखने में सहायक होने के कारण अमूल्य रत्न माने गये हैं उसी प्रकार औरों की आत्मा को सुख और शांति पहुंचाने में समर्थ होने के कारण मधुर वचन भी अनमोल रत्न माने गए हैं । इसलिए मधुर वचनों को अमूल्य रत्न मानकर ही उनका सदुपयोग करना चाहिये तथा कटु शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिये । मौन का महत्व शास्त्रकार कहते हैं कि कठोर, अप्रिय एवं अहितकारी भाषा बोलने की अपेक्षा तो अधिक से अधिक मौन रखना उचित है। यहां यह बात ध्यान में रखने की है कि पूर्णतया चुप रहना तो मौन कहलाता ही है किन्तु सावध भाषा अर्थात् पापजनक भाषा का न बोलना भी वचन का मौन ही माना जाता है। शास्त्र में सावध भाषा बोलने का निषेध है क्योंकि उससे पापों का आगमन होता है। अनेक बार संतों के सामने ऐसी जटिल परिस्थितियां आ जाती हैं कि उन्हें मौन ही रहना पड़ता है क्योंकि लोगों के प्रश्नों के उत्तर में अगर वे हां कहते हैं तो आरम्भ-समारंभ होता है और ना कहने पर व्यक्तियों की सुख शांति भंग होती है, अतः वे 'सबसे भली चुप्प' को ही प्रयोग में लाते हैं । बंधुओ, मेरे आज के कथन का सारांश यही है कि इस संसार में रहने वाले अनंतानंत जीवों में से केवल मनुष्य को ही ऐसी शक्ति मिली है कि वह अपनी भाषा औरों को भली-भांति समझा सकता है और उसके माध्यम से अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकता है । अगर वह चाहे तो अपनी वाणी का अधिक से अधिक सदुपयोग कर सकता है तथा उसके द्वारा भी पुण्य-कर्मों का संचय कर सकला है। उदाहरण के लिये हम मुसलमानों के धर्मग्रन्थ कुरान को भी लें तो सूरत बकर के सकू ३६ की तीसरी आयत में लिखा हुआ है . "कौलन मारफ न वा मगफिर तुन, खैरून मिन मदक तिन।" अर्थात्-भद्र और क्षमायुक्त वचनों का प्रयोग करना दान देने से भी श्रेष्ठतर है। कितनी सही और सुन्दर बात है ? आप लोग पुण्योपार्जन करने के लिये . लाखों रुपयों का दान देते हैं किन्तु फिर भी अगर आपको अहंकार और गौरव को ठेस पहुंचाने वाली छोटी-से-छोटी बात भी किसी के द्वारा कह दी जाती है तो आपका क्रोध विषधर सर्प की तरह फुफकार कर चोट करने के लिये अपनी जिह्वा रूपी फन उठा लेता है । परिणाम यह होता है कि दान-पुण्य और अन्य अनेकों धर्म-क्रियाओं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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